ऊँठाला का युद्ध : हरावल का हक

ऊँठाला का युद्ध: ऊँठाला के युद्ध को केवल चुंडावत और शक्तावत वीरों के बीच हरावल के हक की प्रतिस्पर्धा के रूप में देखना उसके ऐतिहासिक महत्व को सीमित कर देगा। यह युद्ध महाराणा अमर सिंह जी के नेतृत्व में लड़ा गया था। लेकिन इस युद्ध का मुख्य उद्देश्य मेवाड़ की स्वतंत्रता और मुगलों के खिलाफ संघर्ष था। यह युद्ध तुर्क मुगल सिपहसालार कायम खां के विरुद्ध लड़ा गया था, जो ऊँठाला दुर्ग में तैनात था।

ऊँठाला का युद्ध

ऊँठाला का युद्ध मेवाड़ के इतिहास में एक अद्वितीय घटना है, जो वीरता, बलिदान और सम्मान की अद्भुत गाथा कहता है। यह युद्ध न केवल मुगलों के खिलाफ मेवाड़ की स्वतंत्रता के संघर्ष का प्रतीक है, बल्कि यह चुंडावत और शक्तावत वीरों के बीच हरावल के अधिकार को लेकर हुए बलिदान को भी दर्शाता है। हरावल, यानी सेना की अग्रिम पंक्ति में लड़ने का अधिकार, उस समय बड़े गौरव और सम्मान की बात मानी जाती थी। इस युद्ध ने मेवाड़ की वीरता को एक नई ऊँचाई दी।

ऊँठाला का युद्ध मेवाड़ के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युद्ध था , जो मुगलों के खिलाफ मेवाड़ की स्वतंत्रता के संघर्ष का हिस्सा था। हालांकि, यह युद्ध 17वीं शताब्दी के आरंभिक दशक में हुआ माना जाता है।

क्या है हरावल

हरावल का अर्थ सेना के अग्रभाग या वह दल होता है जो सेना में सबसे आगे रहता है। यह शब्द मुख्य रूप से सैन्य संदर्भ में प्रयोग किया जाता है, जहाँ यह सेना की पहली टुकड़ी को दर्शाता है जो युद्ध के मैदान में सबसे आगे होती है और शत्रु से सबसे पहले टकराती है।

मेवाड़ जहाँ मातृभूमि के लिए लड़ने में हरावल ( युद्ध में आगे रहना या अग्रिम मोर्चा ) में रहने के लिए भी युद्ध जैसी परीक्षा होती थी। जो उसमे सफल होता उसे युद्ध में हरावल का अधिकार होता।

ऊँठाला दुर्ग का महत्व

ऊँठाला दुर्ग, जो वर्तमान में वल्लभनगर के नाम से जाना जाता है, उदयपुर से 39 किलोमीटर पूर्व में स्थित है। यह दुर्ग अपने मजबूत परकोटे और रणनीतिक स्थिति के कारण मुगलों के लिए एक महत्वपूर्ण किला था। इसके चारों ओर नदी बहती है, जिसने इसे और भी दुर्गम बना दिया था। महाराणा अमर सिंह जी ने इस दुर्ग को मुगलों से मुक्त कराने के लिए एक बड़ा अभियान चलाया, जो मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए एक निर्णायक कदम साबित हुआ।

हरावल का अधिकार: चुंडावत और शक्तावत योद्धाओं में युद्ध जैसी परीक्षा

मेवाड़ की सेना में हरावल का अधिकार चुंडावत वीरों को प्राप्त था, जो पीढ़ियों से इस गौरव को संजोए हुए थे। हालांकि, शक्तावत वीरों ने भी अपनी वीरता और पराक्रम के बल पर इस अधिकार की मांग की। महाराणा अमर सिंह जी के सामने यह एक बड़ी दुविधा थी, क्योंकि दोनों ही पक्ष मेवाड़ की शक्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे। उन्होंने इस समस्या का एक अनोखा हल निकाला। दोनों दलों को ऊँठाला दुर्ग पर अलग-अलग दिशाओं से आक्रमण करना था, और जो पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा, उसे हरावल का अधिकार मिलेगा।

युद्ध की घटना

युद्ध के दौरान, शक्तावतो के योद्धा, महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत ने दुर्ग के मुख्य द्वार को तोड़ने का प्रयास किया। हालांकि, द्वार पर लगे नुकीले शूलों के कारण हाथी पीछे हट गया। योद्धा बल्लू सिंह ने स्वयं द्वार के सामने खड़े होकर हाथी को अपने ऊपर टक्कर मारने का आदेश दिया। इस अद्भुत बलिदान के बाद द्वार टूट गया, लेकिन योद्धा बल्लू सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए। दूसरी ओर, रावत कृष्णदास जी चुंडावत के पुत्र रावत जैत सिंह ने दीवार पर चढ़कर दुर्ग में प्रवेश करने का प्रयास किया। गोली लगने के बाद, उन्होंने अपने साथियों को अपना सिर काटकर दुर्ग के अंदर फेंकने का आदेश दिया। इस तरह, चुंडावतो ने हरावल का अधिकार बरकरार रखा।

ऊँठाला का युद्ध – मुगल सिपहसालार कायम खां ऊँठाळे दुर्ग में तैनात था। इस युद्ध को मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इसका सबसे अहम कारण था चुण्डावतों व शक्तावतों में हरावल में रहने की होड़।

मेवाड़ की हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति में रहकर लड़ने का अधिकार चुण्डावतों को प्राप्त था। जब महाराणा अमरसिंह ने ऊँठाळे दुर्ग पर आक्रमण करने की बात दरबार में की, तब वहां मौजूद महाराज शक्तिसिंह के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत ने महाराणा से अर्ज किया कि

“हुकम, मेवाड़ की हरावल में रहने का अधिकार केवल चुंडावतों को ही क्यों है, क्या हम शक्तावत किसी मामले में पीछे हैं ?”

तभी दरबार में मौजूद रावत कृष्णदास चुंडावत के पुत्र रावत जैतसिंह चुंडावत ने कहा कि “मेवाड़ की हरावल में रहकर लड़ने का अधिकार चुंडावतों के पास पीढ़ियों से है।”

महाराणा अमरसिंह के सामने दुविधा खड़ी हो गई, क्योंकि वे दोनों को ही नाराज नहीं कर सकते थे। सोच विचारकर महाराणा अमरसिंह ने इस समस्या का एक हल निकाला।

महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “आप दोनों शक्तावतों और चुंडावतों की एक-एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व करो और अलग-अलग रास्तों से ऊँठाळे दुर्ग में जाने का प्रयास करो। दोनों में से जो भी ऊँठाळे दुर्ग में सबसे पहले प्रवेश करेगा, वही हरावल में रहने का अधिकारी होगा”

महाराणा अमरसिंह ने खुद इस महायुद्ध का नेतृत्व किया। महाराणा के नेतृत्व में 10,000 मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे गांव में प्रवेश किया, जहां मुगलों से लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में सैंकड़ों मुगल मारे गए। मुगल सेना ने भागकर ऊँठाळे दुर्ग में प्रवेश किया। मेवाड़ी सेना ने ऊँठाळे दुर्ग को घेर लिया।

दुर्ग में प्रवेश करने के लिए बल्लू जी शक्तावत दुर्ग के द्वार के सामने आए और अपने हाथी को आदेश दिया कि द्वार को टक्कर मारे पर लोहे की कीलें होने से हाथी ने द्वार को टक्कर नहीं मारी। ऊपर से हाथी मकुना अर्थात बिना दांत वाला था।

बल्लू जी द्वार की कीलों को पकड़ कर खड़े हो गए और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर हूल दे। हाथी ने बल्लू जी के टक्कर मारी, जिससे बल्लू जी नुकीली कीलों से टकराकर वीरगति को प्राप्त हुए। द्वार टूट गया और द्वार के साथ-साथ बल्लू जी भी किले के भीतर गिर पड़े। बल्लू जी के इस बलिदान के बावजूद वे हरावल का अधिकार नहीं ले सके।

रावत जैतसिंह चुण्डावत सीढियों के सहारे ऊपर चढ रहे थे। ऊपर पहुंचते ही मुगलों की बन्दूक से निकली एक गोली रावत जैतसिंह की छाती में लगी, जिससे वे सीढ़ी से गिरने लगे, तभी उन्होंने अपने साथियों से कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथियों ने ठीक वैसा ही किया।

इस तरह किले में पहले प्रवेश करने के कारण हरावल का नेतृत्व चुण्डावतों के अधिकार में ही रहा।

महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से कायम खां को मारा और मेवाड़ी वीरों ने ऊँठाळे दुर्ग पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की।

युद्ध का परिणाम और ऐतिहासिक महत्व

ऊँठाला का युद्ध मेवाड़ की एक बड़ी विजय के रूप में दर्ज हुआ। महाराणा अमर सिंह ने मुगल सेना को पराजित कर दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया। इस युद्ध ने न केवल मेवाड़ की स्वतंत्रता को मजबूत किया, बल्कि यह चुंडावत और शक्तावत वीरों के बीच हरावल के हक के अधिकार को लेकर निर्णय कर दिया। यह युद्ध मेवाड़ की वीरता और बलिदान की एक अमर गाथा बन गया, जो आज भी प्रेरणा का स्रोत है। इस प्रतिस्पर्धा ने युद्ध के दौरान दोनों पक्षों के वीरों को अद्वितीय बलिदान और पराक्रम दिखाने के लिए प्रेरित किया।

युद्ध का व्यापक संदर्भ

ऊँठाला का युद्ध मुगलों के खिलाफ मेवाड़ की स्वतंत्रता के संघर्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। महाराणा अमर सिंह ने इस युद्ध के माध्यम से मुगलों को एक बड़ा संदेश दिया कि मेवाड़ कभी भी उनके अधीन नहीं होगा। यह युद्ध न केवल चुंडावत और शक्तावत वीरों के बलिदान का प्रतीक है, बल्कि यह मेवाड़ की एकता, वीरता और स्वाभिमान का भी प्रतीक है।

निष्कर्ष

ऊँठाला के युद्ध को चुंडावत और शक्तावत वीरों के बीच मातृभूमि के लिए बलिदान रूप में देखना उचित है, लेकिन इसे केवल इसी संदर्भ में सीमित नहीं किया जाना चाहिए। यह युद्ध मेवाड़ की स्वतंत्रता, वीरता और बलिदान की एक बड़ी गाथा है, जो इतिहास में अमर हो गई। चुंडावत और शक्तावत वीरों का बलिदान इस युद्ध का एक महत्वपूर्ण पहलू है, लेकिन यह युद्ध का मुख्य उद्देश्य नहीं था। इसलिए, ऊँठाला के युद्ध को एक व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए, जो मेवाड़ की स्वतंत्रता और वीरता को दर्शाता है।

ऊँठाला का युद्ध मेवाड़ के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। इस युद्ध ने मेवाड़ की वीरता को एक नई ऊँचाई दी और इतिहास में अमर हो गया। यह युद्ध मेवाड़ की वीरता और बलिदान की एक अमर गाथा बन गया, जिसमें महाराज शक्तिसिंह के पुत्र बल्लू सिंह शक्तावत और रावत कृष्णदास जी चुंडावत के पुत्र रावत जैत सिंह चुंडावत जैसे वीर योद्धाओं ने शौर्य , त्याग , बलिदान, पराक्रम और प्राणोत्सर्ग की उद्दात भावना का प्रदर्शन किया।

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