राव चन्द्रसेन राठौड़ : आखिर अकबर भी हारा

राव चन्द्रसेन राठौड़ (1562-1581) मारवाड़ राज्य के राठौड़ शासक थे। वे राव मालदेव के छोटे बेटे और मारवाड़ के उदयसिंह के छोटे भाई थे । मारवाड़ के इतिहास में राव चन्द्रसेन राठौड़ को भूला-बिसरा राजा या मारवाड़ के प्रताप नाम से जाना जाता है। वे अकबर के खिलाफ 20 वर्ष तक लड़े। राव चन्द्रसेन राठौड़ ने अपने पिता की नीति का पालन किया और उन्हे मारवाड़ में मुगल साम्राज्य के विस्तार को रोकने के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।

मारवाड़ के राव चंद्रसेन ने अकबर के खिलाफ खुली बगावत का मोर्चा खोल रखा था। अकबर की सैन्य शक्ति का एक बडा भाग केवल और केवल राव चंद्रसेन के घोड़े पर शाही मुगलिया दाग लगाने के लिए पीछे पीछे दौड़ रही थी। किंतु राव चंद्रसेन ने आजीवन मुगलों से संघर्ष करना स्वीकारा किया पर अधीनता स्वीकार नहीं की। राव चन्द्रसेन को मेवाड़ के महाराणा प्रताप का अग्रगामी भी कहते हैं।

प्रारंभिक जीवन

जन्म – राव चन्द्रसेन राठौड़ का जन्म 16 जुलाई 1541 को हुआ। वे मारवाड़ के राजा राव मालदेव के छठे पुत्र थे। वे उनके उत्तराधिकारी रामसिंह और उदय सिंह के छोटे भाई भी थे। राव मालदेव ने अपने बड़े भाइयों रामसिंह और उदय सिंह के उत्तराधिकारी दावों को दरकिनार करते हुए, राव चन्द्रसेन राठौड़ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इससे राव चंद्रसेन और उदय सिंह के बीच चिरकालीन प्रतिद्वंद्विता शुरू हो गई।

सन् 1562 ई. में  मारवाड़ के राजा राव मालदेव की मृत्यु के बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह को राज्य से निर्वासित कर दिया तथा उदयसिहं (मोटा राजा जो राव चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद मोटा राजा उदयसिंह शासक बने) को पाटौदी का जागीरदार बना दिया। सन् 1562 ई. में विधिवत् तरीके से राव चन्द्रसेन का राज्याभिषेक किया गया, राठौड़ वंश के अपने अपमान का बदला लेने के लिए मुगल सम्राट अकबर के शिविर में चला गया था।

शासन

राव मालदेव की मृत्यु पर चंद्रसेन मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। हालाँकि मारवाड़ के किसी भी कानून में ज्येष्ठाधिकार का कोई कानून नहीं था , लेकिन ज्येष्ठ पुत्र के अधिकारों को शायद ही कभी अलग रखा गया हो। इससे राव चंद्रसेन और उसके भाइयों के बीच झगड़े हुए। 

सोजत, गंगाणी और डूंडा में विद्रोह – सन् 1562 में रामसिंह , उदय सिंह और रायमल ने क्रमशः सोजत, गंगाणी और डूंडा में विद्रोह कर दिया। जब चंद्रसेन ने उन्हें दबाने के लिए सेना भेजी, तो रामसिंह और रायमल उसका सामना किए बिना ही युद्ध के मैदान से हट गए।

लोहावट युद्ध – दिसंबर 1562 में चंद्रसेन ने उदय सिंह से लोहावट में युद्ध किया और उसे हरा दिया। इस युद्ध में दोनों पक्षों को जन और माल की भारी हानि हुई। उदय सिंह ने चंद्रसेन पर कुल्हाड़ी से वार किया था और चंद्रसेन के सहयोगी रावल मेघ राज ने भी उसे एक वार किया था। 

नाडोल युद्ध – इसके बाद चंद्रसेन ने सन् 1563 में नाडोल में रामसिंह से युद्ध किया और जब रामसिंह को अपनी सफलता की कोई संभावना नहीं दिखी तो वह नागौर भाग गया। अकबर ने इन आंतरिक विवादों का फायदा उठाया और बीकानेर और आमेर के राजाओं की मदद से चंद्रसेन से कई युद्ध किए। 

हुसैन कुली खान का जोधपुर पर आक्रमण – सन् 1564 में हुसैन कुली खान-ए-जहाँ ने जोधपुर के किले पर आक्रमण किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद चंद्रसेन को भाद्राजून में पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। राव चंद्रसेन राठौड़ ने मुगल सेनाओं पर समय-समय पर हमला करके मुग़ल आधिपत्य को चुनौती देना जारी रखा। वे मारवाड़ के उत्तरी भाग में खुद को स्थापित करने में भी सफल रहे। हालाँकि, वह अपनी स्थिति को मजबूत करने में विफल रहे। और उन्होंने जन और धन का नुकसान उठाना पड़ा। उनके निर्वासन के प्रारम्भिक छह वर्ष सबसे कठिन रहे। फिर भी तुर्क अकबर की अधीनता नहीं स्वीकार की।

नागौर के मुगल दरबार – नवंबर 1570 में चंद्रसेन भाद्राजून से नागौर के मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिए आए। उदय सिंह भी फलौदी से इस दरबार में आए थे। ऐसा लगता है कि दोनों भाई जोधपुर को वापस पाने के इरादे से दरबार में आए थे। लेकिन राव चंद्रसेन ने आते ही दरबार छोड़ दिया, लेकिन अपने बेटे रायसिंह को वहीं छोड़ दिया। ऐसा लगता है कि चंद्रसेन ने दरबार इसलिए छोड़ा क्योंकि उन्हे एहसास हो गया कि वह शाही कृपा से जोधपुर को वापस नहीं पा सकता। साथ ही ऐसा भी लगता है कि उदय सिंह शाही कृपा पाने में कामयाब हो गए थे और उनकी मौजूदगी ने चंद्रसेन के लिए माहौल खराब कर दिया होगा। 

भाद्राजून के किले की घेराबंदी – अकबर को लगा कि रायसिंह का रहना उसके उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता, इसलिए उसने सन् 1571 में भाद्राजून के किले की घेराबंदी कर उस पर कब्जा कर लिया। चंद्रसेन सिवाना के किले में चले गए। उसी वर्ष राव चंद्रसेन का मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने स्वागत किया और अपनी पुत्री की शादी राव से कर दी। वैवाहिक गठबंधन के बाद चंद्रसेन ने नए जोश के साथ कई मुगल चौकियों पर हमला किया। हालाँकि 1572 में महाराणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद स्थिति बदल गई। महाराणा प्रताप  , जो सिंहासन पर बैठे, वह स्वयं अकबर से सामना कर रहे थे। इसके बाद राव चंद्रसेन ने मेवाड़ छोड़ दिया।

1575 में शाह कुली खान, राय सिंह, केशव दास और शाहबाज खान के नेतृत्व में चंद्रसेन के खिलाफ एक शक्तिशाली मुगल अभियान शुरू किया गया था। 

सिवाना का युद्ध – अकबर ने राव चंद्रसेन को पकड़ने के लिए जलाल खान को भेजा था। लेकिन चंद्रसेन का पीछा करते हुए जलाल खान की जान चली गई। ऐसा लगता है कि राव चंद्रसेन द्वारा सिवाना में इस्तेमाल की गई सेना पर्याप्त रूप से सुरक्षित थी, जिसे जलाल खान और अन्य लोगों द्वारा किए गए कठोर प्रयासों के बावजूद हटाया नहीं जा सका। उन्होंने दुराना के वफादार राठौड़ों की एक सेना भी भेजी थी। 

अंततः अकबर ने मीर बख्शी शाहबाज खान के नेतृत्व में एक मजबूत सेना भेजी । शाहबाज खान दुरान के किले को कम करने और सिवाना पर हमला करने में कामयाब रहा।

अकबर ने फुट डालों और राज करो कि नीति के तहत उनके भाई उदयसिंह को जोधपुर का राजा घोषित कर दिया।और हुसैनकुली को सेना लेकर सिवाना पर हमला करने के लिए भेजा,पर उस सेना को चन्द्रसेन के सहयोगी रावल सुखराज और पताई राठौड़ ने जबर्दस्त मात दी।

थक हारकर अकबर ने कई बार चन्द्रसेन को दोबारा जोधपुर वापस देने का प्रस्ताव

दो वर्ष लगातार युद्ध होता रहा, थक हारकर अकबर ने कई बार राव चन्द्रसेन को दोबारा जोधपुर वापस देने और अपने अधीन बड़ा मनसबदार बनाने का प्रलोभन दिया। पर स्वंतन्त्रता प्रेमी राव चन्द्रसेन को यह स्वीकार नही था। तंग आकर अकबर ने आगरा से जलाल खां के नेत्रत्व में तीसरी बड़ी सेना भेजी, पर राव चन्द्रसेन के वीरो ने जलालखां को मार गिराया।

इसके बाद अकबर ने चौथी सेना शाहबाज खां के नेत्रत्व में भेजी,जिसने 1576 ईस्वी में बड़ी लड़ाई के बाद सिवाना पर कब्जा कर लिया,और राव चन्द्रसेन पहाड़ों में चले गये।

राव चन्द्रसेन राठौड़ का स्वर्गवास

राव चंद्रसेन राठौड़
Kshatriya Sanskriti – राव चन्द्रसेन राठौड़ का स्मारक

राव चन्द्रसेन राठौड़ ने 11 जनवरी 1581 को सिरियारी दर्रे पर अपनी मृत्यु तक अपना संघर्ष जारी रखा। उनका अंतिम संस्कार सारन में किया गया, जहाँ उनका स्मारक मौजूद है। उनकी स्वर्गवास के बाद, मारवाड़ को सीधे मुगल प्रशासन के अधीन लाया गया जब तक कि अकबर ने अगस्त 1583 में अपने बड़े भाई उदय सिंह को मारवाड़ की गद्दी वापस नहीं दिला दी ।

डिंगलकाव्य में कवि की शृद्धा शब्द-

“अणदगिया तुरी उजला असमर, चाकर रहण न डिगिया चीत, सारे हिन्दुस्थान तणा सिर , पातल नै चन्द्रसेन प्रवीत”।

अर्थात – जिसके घोड़ो को कभी शाही दाग नही लगा, जो सदा उज्ज्वल रहे,शाही चाकरी के लिए जिनका चित्त नही डिगा, ऐसे सारे भारत के शीर्ष थे राणा प्रताप और राव चन्द्रसेन राठौड़।

संदर्भ-

  1.  भार्गव, विशेश्वर सरूप (1966).मारवाड़ और मुगल सम्राट (1526-1748). पृ. 44, 45, 46, 47, 48, 52, 53.
  2.  राजवी अमर सिंह (1992)। राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास: पश्चिमी राजस्थान । पी। 1170.
  3.  मध्यकालीन भारत: सल्तनत से मुगलों तक भाग – II, सतीश चंद्र द्वारा पृष्ठ 106, 120.
  4.  अकबरनामा, II, पृ.358, अकबरनामा III पृष्ठ 80-82, 318-319
  5. जोधपुर ख्यात पृष्ठ 87, 118-119 
  6.  तुजुक-ए-जहांगीरी पृष्ठ 285
  7.  वीर विनोद द्वितीय पृ.814, वीर विनोद द्वितीय पृष्ठ 114, 814-815 
  8. जोधपुर ख्यात पृष्ठ 80
  9.  विगाट II पृष्ठ 63-65
  10.  सरकार, जे.एन. (1984, पुनर्मुद्रण 1994). जयपुर का इतिहास, नई दिल्ली: ओरिएंट लॉन्गमैन, पृ.41 

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1 thought on “राव चन्द्रसेन राठौड़ : आखिर अकबर भी हारा”

  1. छपनिया राठौड के इतिहास हो तो जानकारी देवे

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