चौहान वंश के प्रथम प्रतापी राजा वासुदेव ने 551 ई . में शाकम्भर (सांभर) को अपनी राजधानी बनाया तथा अपनी कुलदेवी शाकम्भरी मां का मन्दिर बनवाया। शाकम्भरी आद्यशक्ति भगवती दुर्गा का ही रूप है। शाकंभरी देवी ही आशापुरा मां है। यहीं आशापुरा मां – चक्रवती सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कुलदेवी थी।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार –
ततोहमखिल लोकमात्मदेहसमुद्भवें: । भारीष्यामि सुरा: शाकेरावृष्टे: प्राणधारकै: ।।
शाकंभरीति विख्याती तदा यास्याम्याह भुवि । तत्रेव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यम महासुरम ।। (दुर्गा सप्तशती ४८-४९/११)
” जब पृथ्वी पर सौ वर्षो के लिए वर्षा रुक जायगी और पानी का अभाव हो जायेगा तो मैं अयोनिजा रुप में प्रकट होऊंगी और अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाको द्वारा समस्त संसार का भरण पोषण करूंगी। वे शाक ही सभी जीवधारियों की रक्षा करेंगे। ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से मेरी ख्याति होगी।”
श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार –
जब पृथ्वी पर भीषण अकाल पड़ा तो देवी शाकंभरी प्रकट हुई। देवी ने अपनी सैकड़ों आंखों से नौ दिनों तक लगातार वर्षा की तथा अपने शरीर पर भी शाक पात, फल उत्पन्न किए जिससे सभी जीवधारियों की रक्षा हुई और अकाल समाप्त हुआ।
शत शत नेत्रों से बरसाया नौ दिनों तक अति अविरल जल। भूखे जीवों के हित दिए अमित तृण शाक सुचि फल।।
उस समय से शाकमभरी देवी की पूजा की जाने लगी। राजा वासुदेव ने अमृत तुल्य फल देने वाली शाकमभरी देवी को अपनी कुलदेवी बनाया। राजा वासुदेव ने जांगल देश की एक बड़ी झील के किनारे देवगिरि पहाड़ी पर कुलदेवी शाकंभरी का मन्दिर बनाया। और उसी स्थान पर एक नगर बसा कर उसका नाम शाकंभर रखा। जो कालान्तर में बिगड़ कर सांभर कहलाने लगा।
प्राचीन काल में चौहान जांगल देश, सपालदक्ष एवं अनन्त देश के राजा थे और अहिछत्रपुर उनकी राजधानी थी। वे शाकंभरी देवी के कारण ही शाकंभराधीश कहलाते थे।
शाकम्भरी मां के शक्तिपीठ –
सहारनपुर (उ . प्र .) –
सहारनपुर की शिवालिक पहाड़ियों के अंचल में स्थित शाकमभरी देवी का अति प्राचीन मन्दिर है। जहां देवी प्रकट हुई थी।
सांभर (राज .) –
सांभर झील के पास देवगिरि पहाड़ी पर राजा वासुदेव द्वारा प्रतिष्ठित अति प्राचीन मन्दिर है।
सकराय माता (सीकर – राज .) –
सीकर जिले में सकराय माता जी का प्रसिद्ध मन्दिर जो लगभग 1250 वर्ष प्राचीन है। यहां पर भी पूरे वर्ष माता के भक्त आते हैं।
कालांतर में सब आशाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति के रुप में शाकंभरी ही आशापुरा, आशापुरी या आशापूर्णा कहलाने लगी। वैसे इस नामकरण के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं। आशापूर्णा नाम इतिहास में सबसे पहले सांभर नरेश वाकपतिराज (917- 944 ई .) व नाडोल राज्य के संस्थापक राव लाखण (951 – 982 ई.) के बीच मिलता हैं।
राजा वासुदेव, सामंत, दुर्लभराज एवम् वाक् पति आदि ने कुलदेवी की आराधना करके अपनी मनोकामनाएं, आशाएं पूर्ण कर ली थी। कुलदेवी की कृपा से ही साम्राज्य एवं वंश का विस्तार हुआ था। यह देवी सब की आशाएं पूर्ण करने वाली थीं इसलिए इस देवी को आशापुरा या आशापूर्णा कहलाने लगा।
राजा सोमेश्वर, पृथ्वीराज एवं चाहड़देव आदि राजाओं के सिक्को पर आशापुरी देवी का नाम अंकित होता था।