मेवाड़ के ध्येय वाक्य ” जो दृढ़ राखे धर्म को , तिहि राखे करतार “, को चरितार्थ करते हुए यहां के वीर और वीरांगनाओं ने धर्म के लिए अनगिनत बलिदान दिए हैं। यह भूमि बलिदान और त्याग की रही है। ऐसा ही अनुपम त्याग जो विश्व में अनूठा उदाहरण हैं सत्यव्रत रावत चूण्डा का।
कविवर नाथूसिंह महियारिया के अनुसार – भारतीय संस्कृति के सरंक्षण में चूण्डा के त्याग की महिमा उन्हें भगवान से भी बड़ा बनाने वाली साबित हुई –
बीसनू तो छोटा हुआ , ले धरती बगसीस ।
चूंडो दे मोटो हुवो , अम्बर अड़ीयो सीस ।।
रावत चूण्डा का जन्म
रावत चूण्डा का जन्म मेवाड़ के महाराणा लाखा की रानी लखमावती से विक्रम संवत् 1436में हुआ। रानी लखमावती गागरोंन के खींची शासक विरमदे की पुत्री थी। इस रानी से उत्पन्न चूण्डा के राघवदेव , अज्जा , भीम , दूला और डूंगरसी पांच और भाई थे। रावत चूण्डा , महाराणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र होने से मेवाड़ के भावी उत्तराधिकारी थे।
रावत चूण्डा का जीवन वृतांत
महाराणा लाखा और रानी हंसाबाई
मेवाड़ के महाराणा लाखा की उम्र ढलने लगी थी। महाराणा लाखा के जयेष्ठ पुत्र चूण्डा तरुणाई छोड़ युवावस्था में प्रवेश कर रहे थे। ऐसे समय में मंडोवर ( मंडोर – मारवाड़ ) के रणमल , चूण्डा के लिए अपनी बहन हंसाबाई का सम्बन्ध लेकर चित्तौड़ पहुंचा। दरबार लगा। दस्तूर का नारियल हुआ।
उस समय महाराणा लाखा के मुंह से हंसी हंसी में निकल गया कि नारियल तो युवाओं के लिए ही आते हैं , हम जैसे वृद्धों को कौन पूछे । अपने पिता के ये बोल सुन युवराज चूण्डा ने रणमल से कहा कि यह दस्तूर आप मेरे पिता से कर दे , मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा।
राठौड़ रणमल ने कहा कि मैं आपके लिए यह दस्तूर लेकर आया हूं कि आप पाटवी (जयेष्ठ) कुंवर है आप मेवाड़ के भावी महाराणा है। मेरी बहन का विवाह आपसे करने से उससे जन्म लेने वाला पुत्र भी मेवाड़ का भावी स्वामी बनेगा लेकिन यदि मेरी बहन का विवाह महाराणा लाखा से होता है तो वह मेवाड़ का भावी स्वामी नहीं बनेगा। अतः मैं यह विवाह का प्रस्ताव आपके लिए ही लाया हूं।
रावत चूण्डा की भीष्म प्रतिज्ञा
मंडोर के राव रणमल के इस विवाह प्रस्ताव पर मेवाड़ के युवराज चूण्डा ने कहा कि मैं आपकी बहन से विवाह नहीं कर सकता । और मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि उससे उत्पन्न पुत्र ही मेवाड़ का स्वामी बनेगा।
युवराज चूण्डा की प्रतिज्ञा को सुन पूरा दरबार स्तब्ध ! दरबार में सन्नाटा। अपने पुत्र की इस भीष्म प्रतिज्ञा के आगे महाराणा लाखा की एक नहीं चली। और विवश होकर उन्हें वह विवाह का दस्तूर स्वयं के लिए स्वीकार करना पड़ा।
इस प्रकार रणमल की बहन का विवाह महाराणा लाखा के साथ हुआ और उससे मोकल का जन्म हुआ ।
युवराज चूण्डा के अनुपम त्याग के बारे में कविवर लिखते है कि
चंवरी चढ़ लाखो फिरे , फिरे बीनणी लार ।
चूण्डा री कीरत फिरे , सात समंदा पार ।।
जब एक ओर मंडोर में महाराणा लाखा विवाह मण्डप में दुल्हन के साथ फेरे ले रहे थे , तब ही दूसरी ओर परम त्यागी चूण्डा का सुयश सातों समुंद्रो को लाँघकर संपूर्ण विश्व में व्याप्त हो रहा था।
युवराज चूण्डा ने अपने लिए प्रस्तावित विवाह को तो नकारा ही , साथ साथ अपने राजसिंहासन के हक़ को भी छोड़ दिया । इतना ही नहीं , तदनंतर मंडोर के शासक राव रणमल पर विजय प्राप्त कर उससे विजित चित्तौड़ को भी पुनः अपने अनुज मोकल को दे दिया। ऐसे विलक्षण दानी चूण्डा पर तो अनेक दुर्ग निछावर है।
कुन्ती पुत्र पाण्डवों के राज्याधिकार की मांग के कारण महाभारत हुआ। और संपूर्ण वंश का नाश हो गया, जिससे हस्तिनापुर गौरवविहीन हुआ। वहीं वीर प्रसूता चित्तौड़ अपने लाडले सपूत चूण्डा के अनुपम राज्य त्याग के कारण यशोमंडित हैं।
चूंडा का त्याग उनके जीवन का परिस्थिति जन्य अथवा नाटकीय त्याग नहीं था। अपितु वह उनके व्यक्तित्व में समाया हुआ एक अपूर्व उज्ज्वल चरित्र था। इसी परिप्रेक्ष्य में कहना न होगा कि परमत्यागी चुंडा ने अपने अधिकार में आया हुआ चित्तौड़गढ़ का समस्त राज्य वैभव अपने अनुज मोकल को एक बार नहीं , दो दो बार प्रदान किया – पहली बार तो उन्होंने अपने पिता महाराणा लाखा के वीरगति प्राप्त होने पर और दूसरी बार तब , जब मंडोर के राव रणमल ने षड्यंत्र रचकर उसे हथियाना चाहा था , तब उसे मार कर।
निष्कर्ष ( Conclusion)
युवराज चूंडा का अपने लिए प्रस्तावित हंसाबाई में , पिता की भावना के अनुरूप , अपनी मां को देखकर उस प्रस्ताव को ठुकरा देना , कोई सामान्य त्याग नहीं है। मेवाड़ राजवंश में पैदा हुए सभी पाटवी राजकुमारों में चूंडा जी के व्यक्तित्व की विशेष गरिमा है। धन्य है ऐसे त्यागी , पितृभक्त , मेवाड़ के भीष्म , सत्यव्रत रावत चूंडा जो इतिहास में अमर हो गए।