महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल का हाथ पकड़ कर उसे गद्दी से उठाया और प्रताप को मेंवाड़ के सिंहासन पर आसीन किया। इस प्रकार प्रताप का हक दिलाने में रावत कृष्णदास चुंडावत की मुख्य भूमिका रही।
मेंवाड़ के भीष्म चूंडा के त्याग, कर्त्तव्यपरायणता, निष्ठा और असाधारण वीरता जैसे पहलुओं ने मेंवाड़ के इतिहास को गौरवमय बनाने में अनूठा योगदान दिया। जिस प्रकार वीरवर चुंडा ने अपनी सतत साधना से एक पृथक पहचान बनाई और अपने वंशजों को चुंडावत कहलाने का गौरव प्रदान किया उसी प्रकार आगे चल कर उन्हीं के वंशज रावत किशनदास चुंडावत ने अपने यश और शौर्य से सर्वथा नवीन ख्याति अर्जित की। रावत कृष्णदास चुंडावत के वंशज कृष्णावत हुए। चुंडा जी की सातवीं पीढ़ी में रावत कृष्णदास चूंडावत हुए।
मेंवाड़ के भीष्म चुंडा के पुत्र कांधल हुए। जो चुंडावतो में ही नहीं अपितु मेवाड़ के सभी सरदारों में पाटवी माने गए। कांधल ने अपनी तलवार से शत्रुओं को परास्त कर महाराणा कुम्भा के राज्य का विस्तार किया एवम् शासन प्रबन्ध मे अपनी अहम भूमिका निभाई।
कांधल के पुत्र रतनसिंह ने खानवा के युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया और प्राणोत्सर्ग कर एक उज्जवल इतिहास का निर्माण किया। रतनसिंह के उत्तराधिकारी दूदा चितौड़ के दुसरे शाके में वीरगति को प्राप्त हुए। दूदा के निःसंतान प्राणोत्सर्ग करने पर उनके भाई साईदास , जयमल और पत्ता की तरह चित्तौड़ के तीसरे शाके में अपना बलिदान दिया।
साईदास के उत्तराधिकारी खेंगार हुए। वह जब मानसिंह कच्छवाहा से मिला तो उसकी मनोदशा देखकर यह जान लिया कि यह आदमी मुगलों का पक्षधर है और इससे समझौता करना ठीक नहीं है। इसकी जानकारी महाराणा प्रताप को देकर सचेत किया।
खेंगार के बाद रावत कृष्णदास चुंडावत सलुंबर की गद्दी पर विराजमान हुए। उन्होंने मेंवाड़ के इतिहास में अपनी अलग पहचान बनाई। परिणामत: उनके वंशज कृष्णावत नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने मेव जाति के लोगों का दमन कर 1636 ई . में अपना प्रभुत्व जमाया। यहां के भील, गमेती बड़े उपद्रवी थे, परन्तु कृष्णदास ने अपने बाहुबल से उन्हें अधीन किया। इस संदर्भ में कृष्णावत वंश प्रकाश में कवित्त उल्लेखनीय है –
पोह राण परताप, बीजड रावनू बदाई । पटो सलूंबर सेत, पटेके ठाहर पाई।।
ऊपज सहज असीह, रेख़ सावत करवाई। सिंग सलुंबर्यो मोर, आप पाछ अपणई ।।
मज छपन भांग मेवास मुख, सरब उधप दानेस । रवतेज राज थाप्यो रघु, संवत् सोल छत्तीस रे ।।
महाराणा प्रताप का राजतिलक –
हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप के संघर्षमय जीवन को सफल बनाने और गुहिल वंश की मर्यादा की रक्षा करने वाले कृष्णदास अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल का हाथ पकड़ कर उसे गद्दी से उठाया और प्रताप को गद्दी पर आसीन कर मेंवाड़ के सिंहासन पर आसीन किया। इस प्रकार प्रताप का हक दिलाने में रावत कृष्णदास चुंडावत की मुख्य भूमिका रही।
यहां यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि रावत कृष्णदास चुंडावत ने यदि प्रताप जैसे व्यक्ति को उस समय गद्दी पर नहीं बैठाते तो आज भारत का इतिहास बदल गया होता। और पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और अरब देशों के समान भारत हो जाता।
हल्दीघाटी (हल्दीघाटी : रक्तरंजित पावन माटी ) के युद्ध में (18 जून 1576 ई .) रावत कृष्णदास चुंडावत हरावल में रहें और मेंवाड़ के दुसरे सरदारों के साथ मिलकर इतने वेग से मुगल सेना पर आक्रमण किया कि शत्रुओं को कई बार पीछे भागना पड़ा।
छापामार युद्ध करने के साथ मेंवाड़ राज्य का प्रबन्ध सुचारू रूप से सम्पादित करने में रावत कृष्णदास चुंडावत की प्रमुख भूमिका रही। एक सच्चे स्वामीभक्त के रुप में प्रताप के साथ रहकर, उन्होंने न केवल विकट घड़ी में मेंवाड़ के सरदारों को एक सूत्र में बांधे रखा बल्कि पग पग पर शत्रुओं से लोहा लेकर अपनी रणकुशलता और निर्भीकता का परिचय दिया।
रावत कृष्णदास चुंडावत हरावल में लड़ते रहे तो दूसरी ओर उन्होंने सलुंबर में लक्ष्मीनारायण जी तथा बाण माता जी के देवालय निर्मित करवा कर अपनी आध्यात्मिकता का परिचय दिया। अनवरत युद्धों में लड़ने के कारण कृष्णदास जी का शरीर इतना जर्जरित हो गया था कि उन्हें संवत् 1652 में इस अस्थाई संसार से सदा के लिए विदा होना पड़ा।
रावत कृष्णदास चुंडावत के दस पुत्र हुए। जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र जैतसिंह जी ने सलूंबर की बागड़ोर संभाली। महाराणा प्रताप जब अपनी मृत्यु को निकट देख वंश गौरव के बारे में चिंतित रहने लगें तब जेतसिंह और मेंवाड़ के अन्य उमरावों ने बाप्पा रावल की सौगंध खाकर प्रतिज्ञा की मेंवाड़ का गौरव हमेशा की तरह बना रहेगा। इसके बाद महाराणा प्रताप ने अपने प्राण त्यागे।
रावत कृष्णदास चुंडावत एवम् उनके वंशजों की मेंवाड़ में अहम और निर्णायक भूमिका रही। उन्होंने कर्त्तव्य परायणता, त्याग, धर्म और देश के लिए स्वाभिमान के साथ प्राण न्यौछावर करने का मार्ग अंगीकार कर मेवाड़ के इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है।
चांपा मुरधर मोड़ , धर ढूढा नाथा धणी ।
चुंडा घर चित्रकोट , कीरत हंदा किसनसी ।।
जिस प्रकार मारवाड़ का शासन- प्रबंध चंपावतो के हाथ में है, जयपुर का नाथावतो के पास और मेवाड़ का चुंडावतों के पास है। पर उनमें भी कीर्ति लिए हुए शिरोमणी किशनावत हैं।
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