हल्दीघाटी का स्वतंत्रय महायुद्ध मेवाड़ इतिहास का स्वर्णिम अध्याय हैं। मेवाड़ के इस गरिमामय धरा के योद्धाओं ने हमेशा तीर – तलवारों की चमचमाहट और तोपो की गर्जनाओं में अपनी स्वाधीनता की रक्षार्थ तपते रहकर शोर्यपरक संघर्ष से राष्ट्रीय चेतना की मशाल को प्रदीप्त रखा है।
महाराणा प्रताप के नेतृत्व में लड़े गए हल्दीघाटी युद्ध में इस धरती का कण कण क्षत्रिय और क्षत्रियेत्तर जातियों के योद्धाओं के खून से लाल होकर मानव शौर्य का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। मेवाड़ के महाराणा और जन जन अपनी धरा, धर्म की रक्षार्थ चौदह सौ वर्षो पर्यन्त विदेशी आक्रांताओं से लोहा लेते रहें हैं ।
हल्दीघाटी का युद्ध
हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप ने अपनी कुल मर्यादा और देश रक्षा के लिए कठोर जीवन जीकर जो अनवरत संघर्ष किया , वह इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित है। शहंशाह अकबर के आगे समस्त शासक नत – मस्तक हो गए लेकिन राष्ट्रवीर प्रताप अडिग रहें। मेवाड़ वंश की गौरव – गरिमा को बनाए रखा और साहस के साथ परिस्थितियों से जूझते रहे।
ऐसे अनमोल राष्ट्रहित कार्यों ने उनको राष्ट्रनायक बना दिया । हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ के मुट्ठी भर शूरवीर , आक्रांता की विशाल और सुसज्जित सेना का डटकर मुकाबला करते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर आज़ादी की तवारिख में अमर हो गए ।
बहलोल खा को घोड़े सहित काटना
हल्दीघाटी युद्ध इतना भीषण था कि नरकेसरी महाराणा प्रताप ने शत्रु सेना के बहलोल खा को एक ही वार मे घोड़े सहित काट दिया। ऐसे राष्ट्रवीर नर नाहर प्रताप का राष्ट्र ऋणी है।
सेनापति मान सिंह का होंदे में छिपना
नरकेसरी प्रताप युद्ध भूमि में सीधे अकबर के सेनापति मान सिंह, जो हाथी पर सवार था के सामने पहुंचे। चेतक ने जैसे ही हाथी के मस्तक पर पांव रखा तो प्रताप ने भाले से वार किया। महावत मारा गया। मान सिंह हाथी के होंदे में छिपने से बच गया। हाथी की सूंड में लगी तलवार से चेतक घायल हो गया।
रक्त तलाई
हल्दीघाटी के भीषण युद्ध में इतना रक्त बहा की उस भूमि पर खून की तलाई बन गई। तब से उस स्थान को रक्त तलाई के नाम से जाना जाता हैं । धर्म और धरा के लिए लड़े इस युद्ध में मेवाड़ की सेना के वीरों ने अपना बलीदान दिया। वास्तव मे यह हल्दीघाटी किसी धाम या तीर्थ से कम नहीं हैं रक्त रंजित पावन माटी।
इतिहासकारों के अनुसार
लेफ्टी . कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार-
कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को अत्यन्त महत्त्व देते हुए इसे मेवाड का थर्मोपाली और दिवेर युद्ध को मैराथन लिखा हैं (थर्मोपेली, उत्तरी और पश्चिमी यूनान के बीच एक संकरी घाटी है। जिसके बीच की भूमि सपाट है) एनाल्ज एण्ड एंटीक्वाटीज ऑफ राजस्थान के रचयिता कर्नल जेम्स टॉड (1782- 1835) राजस्थान की आधुनिक एतिहासिकी के संस्थापक के रूप में एक यशश्वी हस्ताक्षर है।
डॉ. गोपीनाथ जी शर्मा के अनुसार –
मेवाड़ – धरा के प्रतिष्ठित इतिहासविद डॉ. गोपीनाथ जी शर्मा ने इस युद्ध को अपने शब्दों में यूं चित्रित किया है – ” The Haldighati fitly assigns to Pratap a position of an upholder of pride of his race and his country. As a great warrior of liberty, devoted lover of noble cause and hero of moral character, his name is to millions of men, a ray of hope by day and a pillar of light by night. Even today Pratap remains a beacon light to millions and the Haldighati a pilgrimage to thousands. “
कवि श्यामल दास (वीर विनोद), गौरीशंकर ओझा, अल्बदायुनी, अबुल फ़ज़ल आदि इतिहासकारों ने युद्ध के वर्णन में इसकी भीषणता का वर्णन किया है।
हल्दीघाटी युद्धभूमि
विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी भारत के राजस्थान में उदयपुर शहर से उत्तर पश्चिम में 44किलोमीटर तथा भगवान श्री नाथजी (नाथद्वारा) की नगरी से 11 मील दक्षिण – पश्चिम में है। गोगुंदा और खमनोर के बीच विकट पहाड़ी श्रेणियां में एक तंग रास्ते वाली घाटी को हल्दीघाटी कहते हैं। यहां की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की होने के कारण ही हल्दीघाटी नाम पड़ा है। दोनो सेनाओं का भीषण युद्ध विक्रम संवत्1633 द्वितीय ज्येष्ठ सुदी तदानुसार 18 जून 1576 में हुआ ।
महाराणा प्रताप की सेना
मेवाड़ की ख्यातो में महाराणा प्रताप के साथ 20,000 सवार लिखा है। नेनसी ने प्रताप के साथ 10000 सवार होना बताया है। अल्बदायू ने महाराणा की सेना में 3000 सैनिक बताया है। लेकिन यह तो सत्य है की मेवाड़ की सेना से दुगुनी से कहीं अधिक थी। मेवाड़ की सेना में धर्म और धरा के लिए लड़ने वाले राष्ट्रवीर योद्धा थे। तो अकबर की सेना में भाड़े के सैनिक थे।
अकबर की सेना
मेवाड़ की ख्यातो में अकबर की सेना में मान सिंह के नेतृत्व के साथ 40,000 सैनिक लिखा है। मुहनोत नेनसी ने मान सिंह की सेना में 40,000 सेना बताया है। अल्बदायू ने जो इस लड़ाई में स्वयं था उसने मान सिंह की सेना में 5000 सवार लिखा है।
हल्दीघाटी के योद्धा
महाराणा प्रताप के योद्धा –
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ की सेना में ग्वालियर के रामशाह तंवर अपने तीनों पुत्रों शालीवाहन , भवानी सिंह और प्रताप सिंह सहित , झाला मान सिंह सज्जावत (देलवाड़ा वालों के पूर्वज) , भामाशाह और भाई तारा चन्द , झाला बीदा सुल्तानोत (बड़ी सादड़ी वालों के पूर्वज ) , सोनगरा मान सिंह अक्षयराजोत , डोडिया भीम सिंह (सरदार गढ़ वालों के पूर्वज) , रावत कृष्णदास सलुंबर , रावत नेत सिंह सारंगदेवोत कानोड़ , रावत सांगा देवगढ़ , राठौड़ रामदास (बदनोर के प्रसिद्ध जयमल के सातवें पुत्र) , मेरपुर (पानरवा) के राणा पूजा सोलंकी, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पड़िहार कल्याण, मेहता जयमल बच्छावट, मेहता रतन चन्द खेतावत, महा साहनी जगन्नाथ, राठौड़ शंकर दास केलवा, चारण जैसा और केशव सौदा बारहट सोन्याना प्रमुख थे। हकीम खां सूर भी मुगलों से लड़ने के लिए राणा की सेना में शामिल हुए।
अकबर के योद्धा –
हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की सेना से सेनापति कुंवर मान सिंह आमेर अपने साथियों – गांजी खा, ख्वाजा मुहमद बादाख्शी, कांजी खां, इब्राहिम चिश्ती, जगन्नाथ कछवाहा, राजा भारमल आमेर का छोटा पुत्र, माधो सिंह कच्छवाहा , मुजाहिद बेग, खंगार कच्छवाहा, लूणकरण (शेखावत शाखा के मूल पुरुष शेखा का प्रपौत्र) आदि प्रमुख थे ।
हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम
महाराणा प्रताप की विजय
मेवाड़ की ख्यातो, पट्टे – परवानों के अनुसार हल्दीघाटी युद्ध महाराणा प्रताप जीते। राज . वि . वि . के प्रो . एवम् इतिहासकार डॉ . चंद्रशेखर शर्मा अपने शोध में प्रताप की विजय को दर्शाते ताम्र पत्र और पट्टो का हवाला देते हुए बताया कि – हल्दीघाटी युद्ध के बाद अगले एक वर्ष तक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के आसपास के गांवो के भूमि के पट्टे, ताम्रपत्र जारी किए। इन ताम्रपत्रो पर एकलिंगनाथ के दीवान प्रताप के दस्तखत है। उस समय भूमि के पट्टे जारी करने का अधिकार केवल राजा (शासक) को ही होता था।
अकबर की हार
इतिहासकार डॉ . चंद्रशेखर शर्मा शर्मा ने अपने शोध में बताया कि युद्ध के बाद सेनापति और आसिफ खा से अकबर नाराज हुआ। दोनों को छः माह तक दीवाने खास/दीवाने आम (दरबार) में आने की पाबंदी लगा दी।
यदी मुगल सेना विजय होती तो अकबर का सबसे बड़ा शत्रु प्रताप को हराने वाले को पुरुस्कृत करता न कि सजा देता।
मुगल सेना न तो प्रताप को बंदी बना सकी और न ही मार सकी। इतिहास में सर्वविदित है कि जब तक कोई राजा मारा नहीं जाता या बंदी नहीं बना लिया जाता या फिर आत्मसमर्पण नहीं करता तब तक वह हारा हुआ नहीं माना जाता।
निष्कर्ष (Conclusion)
हल्दीघाटी की रक्तरंजित पावन माटी किसी तीर्थ या धाम से कम नहीं हैं। इसी भूमि पर धर्म और धरा (मातृभूमि) के लिए शत्रु सेना अकबर से राष्ट्रवीर मेवाड़ की सेना के बीच युद्ध हुआ। महाराणा प्रताप की सेना में अनगिनत योद्धाओ के साथ राणा पूंजा सोलंकी के नेतृत्व में वनवासी भीलो ने भी तीर – कमानो से युद्ध लड़ा। और तो और इसमें चेतक, हाथी रामप्रसाद, हाथी लूणा आदि ने भी अतुलनीय योगदान दिया। पठान योद्धा हकीम खां सूर भी प्रताप की ओर से अकबर के विरुद्ध लड़कर इतिहास में अमर हो गए। इनकी वीरगति के बाद भी हाथ से तलवार नहीं छूटी तो तलवार के साथ ही दफनाया गया।
हल्दीघाटी युद्ध में जाति, धर्म, वर्ग और वर्ण की भावनाओ से परे जहा अनगिनत योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। और शत्रु सेना से लोहा लिया। ऐसी शौर्यधरा हल्दीघाटी दुनिया में इकलौती ही है।
यह शोधपरक लेख आपकों कैसा लगा हमे सुझाव देवे। आपके सुझाव हमारा मार्गदर्शन करेंगे। धन्यवाद। जय एकलिंगनाथ ।
सन्दर्भ : –
- एनाल्ज एण्ड एंटिक्विटिज ऑफ राजस्थान
- वीरविनोद
- गौरीशंकर ओझा का इतिहास
- डॉ . गोपीनाथ शर्मा
- राणा रासो
- बांकीदास री ख्यात
- कु . देवीसिंह मंडावा की पुस्तक ‘ स्वतन्त्रता के पुजारी प्रताप
- राणाजी री बात
- प्रो . देवकर्ण सिंह जी रूपाहेली कृत ‘ हल्दीघाटी हाल ‘
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