छत्रपति शिवाजी महाराज – अप्रतिम शौर्य , अद्भुत साहस , अद्वितीय बुद्धिमता , प्रशंसनीय चरित्रबल , श्रेष्ठ राजनीतिक चतुरता आदि गुण छत्रपति शिवाजी महाराज के चरित्र की अनन्य विशेषताएं हैं। उन्होंने अपने बल पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। और साबित कर दिया कि सिंह का न तो कोई अभिषेक करता है और न ही कोई संस्कार, वह तो अपने पराक्रम से वनराज की पदवी प्राप्त करता है।
छत्रपति शिवाजी महाराज को एक साहसी चतुर एवम् नीतिवान हिन्दू शासक के रुप में सदा याद किया जाता रहेगा। यद्यपि उनके साधन बहुत ही सीमित थे तथा उनकी समुचित ढंग से शिक्षा दीक्षा भी नहीं हुई थी, तो भी अपनी बहादुरी, साहस एवम् चतुरता से उन्होंने औरंगजेब जैसे क्रूर मुगल को कई बार धूल चाटने पर मजबूर कर दिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज कुशल प्रशासक होने के साथ साथ एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने कई लोगों का धर्म परिवर्तन करा कर उन्हें पुनः हिंदू धर्म में घर वापसी करवाई। शिवाजी ने एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना करके इतिहास में एक सर्वथा नवीन अध्याय की स्थापना की। अपने इस सफल प्रयास के माध्यम से उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि धरती क्षत्रियों से खाली नहीं हुई है।
मेंवाड़ की वंश परम्परा
छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेवाड़ के ध्येय वाक्य ” जो दृढ़ राखे धर्म को तीही राखे करतार ” और शास्त्रोक्ति ” धर्मो रक्षती रक्षित: ” को चरितार्थ किया । और हिंदू सम्राट के नाम से इतिहास में अमर हो गए।
मेवाड़ राजपरिवार के सज्जन सिंह जी सन् १३०३ के लगभग चित्तौड़ को छोड़ दक्षिण की ओर चले गए थे उनकी पांचवी पीढ़ी में उग्रसेन का जन्म हुआ जिनके कर्ण सिंह तथा शुभकृष्ण नामक दो पुत्र हुए , इन्ही शुभकृष्ण के वंशजों की उपाधि भोंसले है। इन्ही शुभकृष्ण के पौत्र बाबाजी भोंसले हुए जिनके पौत्र का नाम शाहजी भोंसले था।
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म , बाल्यकाल एवं संरक्षणता
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेर के किले में वैशाख शुक्ल द्वितीया संवत् १५४९ (1549) तदानुसार गुरुवार 6 अप्रैल , 1627 को माता जीजा बाई के गर्भ से हुआ। इनके पिताजी का नाम शाहजी भोंसले था। शिवाजी का बाल्यकाल कोई सुखद नहीं कहा जा सकता। उन्हें अपने पिताजी का सरंक्षण भी प्रायः नहीं के बराबर मिला।
ऐसी परिस्थितियों में भी उनके द्वारा एक स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना निश्चय ही एक आश्चर्य कहा जा सकता हैं। इस आश्चर्य के पीछे जिन दो महान विभूतियों का हाथ रहा, वह माता जीजा बाई तथा दादाजी कोण्डदेव । इन्ही दो मार्गदर्शकों की छत्रछाया में शिवाजी का बाल्यकाल बीता एवं भावी जीवन की नींव पड़ी।
माता जीजा बाई लुकजी जाधवराव की सुपुत्री थीं उनकी धमनियों में देवगिरी के यादव शासकों का रक्त था। जिस समय शिवाजी गर्भ में थे शाहजी ने सूपा के मोहिते परिवार की कन्या तुकाबाई से दुसरा विवाह कर लिया था। ऐसी विकट परिस्थिति में भी जीजा बाई अपने पिता के साथ न जाकर शिवनेर के किले में जो भौसलो की जागीर था चली गई।
वहा शिवनेर के किले में ही शिवाजी का जन्म हुआ। जीजाबाई के ज्येष्ठ पुत्र सम्भाजी पिताजी की सहायता करने लगे। शाहजी मलिकअम्बर के साथ कई वर्षो से मुगलों के विरुद्ध लड़ रहे थे। दौलताबाद के किले पर मुगलों का अधिकार हो जानें पर मुगल सम्राट ने शाहजी तथा उनके परिवार को पकड़वाने की भरसक प्रयास किया।
माता जीजाबाई शिवाजी के साथ शिवनेर के किले में रह रही थी। लेकिन शिवाजी को पकड़ने का प्रयास विफल रहा। इस कठिन परिस्थिति में भी उन वीर माता ने अपने पुत्र की सैनिक शिक्षा में कमी नहीं आने दी ।
पूना प्रस्थान
शिवाजी के जन्म के समय शाहजी निजामशाह की ओर से मुगलों के विरुद्ध लड़ रहे थे। जनवरी 1636 में शाहजंहा स्वयं दक्षिण भारत आया। ठीक इसी समय निजामशाही राज्य समाप्त हो गया। मई में मुगल सम्राट तथा बीजापुर की सल्तनत में संधि हो गई। इसके पश्चात शाहजी भी बीजापुर की सेवा में चले गए। उनकी इन सेवाओं के बदले में उन्हें गोदावरी नदी के दक्षिण में एक जागीर दे दी गई।
यह घटना अक्टूबर 1636 की है। इन संघर्षों के समय में भी शाहजी ने पूना की जागीर पर अपना अधिकार सुरक्षित रखा था। बीजापुर जाने से पहले शाहजी ने जीजाबाई तथा शिवाजी को पूना भेज दिया। पूना की जागीर का प्रबंध करने के लिए उन्होंने दादाजी कोण्डदेव को नियुक्त कर दिया।
इस समय शिवाजी मात्र 7 – 8 वर्ष के थे। दादाजी कोण्डदेव जनता में एक लोकप्रिय व्यक्ति थे। उनकी कर्त्तव्य निष्ठा , देश भक्ति तथा निर्लिप्तता सर्वथा अनुपम थी। वह शिवाजी को जिस रूप में देखना चाहते थे उसके लिए कोई भी प्रयत्न करने में कुछ भी कमी नहीं की ।
यद्यपि उनकी तुलना मौर्यवंश के संस्थापक आचार्य चाणक्य से तो नहीं की जा सकती , तथापि उनका अवदान भी इतिहास में अपना उदाहरण है।
छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह
माता जीजाबाई ने सन् 1640 में फाल्टन के निंबालकर परिवार की कन्या सईबाई से उनका विवाह कर दिया । विवाह के समय शिवाजी की उम्र लगभग 12 – 13 वर्ष की थी।
बीजापुर दरबार में
जब शाहजी आदेशानुसार बीजापुर दरबार में गए तो वह अपने पुत्र शिवाजी को लेकर गए। वहा जाने पर सभी को माथा भूमि को लगा सजदा करना पड़ता था। शाहजी द्वारा किया गया सजदा शिवाजी को अपमान पूर्ण लगा। शिवाजी ने केवल मराठा ढंग से साधारण नमस्कार किया।
शिवाजी के इस व्यवहार को बादशाह ने अपने लिए अशिष्टता और अपमान जनक समझा। शिवाजी ने मुड़कर शाहजी की ओर देखा और कहा ” बादशाह मेरे राजा नहीं है मैं इनके आगे सिर नहीं झुका सकता , मेरा सिर माता तुलजा भवानी और आपकों छोड़कर अन्य किसी के आगे नहीं झुक सकता । “
दरबार में सनसनी फेल गई। शाहजी ने सहमते हुए प्रार्थना की क्षमा करें। यह अभी नादान है। और शिवाजी को घर जानें की आज्ञा दे दी। शिवाजी निर्भीकतापूर्वक दरबार से घर चले गए।
एक बार जब एक कसाई एक गाय को वध के लिए ले जा रहा था यह देखकर शिवाजी क्रोधित हो गए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाल कर कसाई का सिर उड़ा दिया। इस मामले की जांच हुई। अतः भावी विपत्ति से बचने के लिए उन्हें शीघ्र ही बीजापुर छोड़ देना पड़ा।
स्वतंत्र हिन्दवी स्वराज का संकल्प
छत्रपति शिवाजी महाराज धीरे धीरे अपने कार्यों और उत्तरदायित्वों को समझने लगे। उनके विचारों में भी अवस्था के साथ ही परिपक्वता आती गई। धीरे धीरे शिवाजी ने अपने बाल्यकाल के मित्रों का एक संगठन बना लिया। यह संगठन बलिदान करने को भी तैयार रहता। शिवाजी स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने के लिए कटिबद्ध हो गए।
अपने लोगों का उत्साह बढ़ाने के लिए मुसलमानों के अत्याचारों का वर्णन करते हुए शिवाजी कहते – ” विदेशी मुसलमान हमारे देश और धर्म पर अत्याचर कर रहे हैं। क्या इन अत्याचारों का बदला लेना हमारा धर्म नहीं। “ इन आक्रांताओ के दिए हुए पुरुस्कारों तथा अपनी पैतृक संपत्ति से ही हम क्यों संतुष्ट रहे। हम हिन्दू हैं , यह सारा देश हमारा है फिर भी इस पर मुगलों का शासन है। वे हमारे मंदिरों को अपवित्र करते हैं। मूर्तियों को तोड़ते हैं। हमारे धन को लूटते हैं। हमारे देशवासियों को बलात मुसलमान बनाते हैं और गाय की हत्या करते हैं। अब हम इस व्यवहार को सहन नहीं करेंगे।
हमारी भुजाओं में बल है। अपने पवित्र धर्म की रक्षा के लिए अब हमें तलवारें खींच लेनी होगी। अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र करेंगे। अपने प्रयासों से नया हिंदवी स्वराज बनाएंगे। हम अपने पूर्वजों के समान ही वीर और योग्य है यदि हम इस पावन कार्य को प्रारंभ करे तो निश्चय ही ईश्वर हमारी सहायता करेगा । “
शिवाजी के इन शब्दों को सुनकर उनके मित्रों मे जोश भर गया एवम् मावल की बारह घाटियों को अपने पूर्ण अधिकार में ले लिया। शीघ्र ही कोढाना दुर्ग पर भी अपना अधिकार करके उसका नाम बदलकर सिंहगढ़ रख दिया । इस समाचार के बीजापुर पहुंचने पर शाहजी को दरबार से हटा दिया गया।
खण्डोजी और बाजी घोरपड़े को शिवाजी और कोण्डदेव के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए आदेश दिया । लेकिन वह भी शाहजी के परम मित्र एवम् शिवाजी के प्रबल समर्थक थे इसलिए उन्होंने इस विषय में कोई कार्यवाही नहीं की ।
अपनी सफलता से शिवाजी का उत्साह बढ़ा । अतः 30 मार्च 1645 के शुभ दिन उन्होंने स्वतत्र हिंदवी स्वराज की स्थापना करने का व्रत लिया। इसके बाद उन्होंने अपनी शासनीय मुहर चलाई। शासन का संचालन करने के लिए नए पदों का सृजन और उन पर नियुक्तियां की ।
सर्वप्रथम उन्होंने आसपास के किलो को अधिकार में कर लेने का निर्णय किया और कुछ ही समय में तोरण दुर्ग व चाकण पर अधिकार कर लिया। शिवाजी ने तोरण दुर्ग की मरम्मत का कार्य भी प्रारंभ कर दिया । इसी मरम्मत कार्य में खुदाई होने पर उन्हें पूर्वोक्त गढ़ा धन मिला। जिससे शिवाजी की सभी समस्याओं का समाधान हो गया।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने विशाल मात्रा में अस्त्र शस्त्र आदि खरीदे तथा एक नए किले का निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया । यह किला तोरण दुर्ग से तीन मील दूर दक्षिण पूर्व में मौरबुध नामक पहाड़ी पर बनाया गया।
सन् 1648 में शिवाजी ने पुरंदर के किले पर भी अधिकार कर लिया । 25 जुलाई 1648 को बीजापुर के सुल्तान द्वारा शाहजी बंदी बना लिए गए। इसके तुरन्त बाद बीजापुर की एक सेना सिंहगढ़ पर आक्रमण करने के लिए भेजी गई। भीषण युद्ध हुआ और बीजापुर की सेना परास्त हुई।
इस विजय से बीजापुर के शासक को छत्रपति शिवाजी महाराज की शक्ती का परिचय मिल गया। इधर शाहजी के ज्येष्ठ पुत्र सम्भाजी ने बंगलौर के किले पर अधिकार कर लिया। शिवाजी तथा संभाजी जैसे दो वीर पुत्रों के पिता शाहजी के साथ सुल्तान अधिक कठोरता नहीं कर सका।
माता जीजाबाई ने अपने पति की मुक्ति के लिए शिवाजी को दोनों किलों को बीजापुर सोपने की सलाह दी, माता की परामर्श के अनुसार दोनों दुर्गों को बीजापुर में दे देने पर लगभग दस माह बाद 16 मई 1649 को शाहजी मुक्त कर दिए गए।
इसके बाद छत्रपति शिवाजी महाराज ने सूपा दुर्ग पर (1649 – 1652 के मध्य) अधिकार कर लिया । इस प्रकार चाकन से लेकर नीरा नदी तक के क्षैत्र में शिवाजी का अधिकार हो गया एवम् स्वतंत्र राज्य की घोषणा कर दी। शिवाजी अपने जीवन के लगभग पच्चीसवें वर्ष में ही एक स्वतंत्र शासक बन गए।
शिवाजी की शक्ति का वर्णन करते हुए इतिहासकार डफ लिखता है – ” उन्होंने चीते जैसी सावधानी से इस क्षैत्र को अपने पंजों में जकड़ लिया था। वह तब तक पहाड़ियों में ही अपनी शक्ति एकत्र करते रहें , जब तक उन्होंने यह नहीं समझ लिया कि मैं अब पूर्णरूप से सुरक्षित हूं। “
छत्रपति शिवाजी की बढ़ती शक्ति को देखकर मावल के अधिकांश जागीरदारों ने शिवाजी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया था। इसके बाद जावली को अपने अधिकार में ले लिया।
सन् 1657 में शिवाजी ने अपनी कार्यवाही तेज कर दी , तो औरंगजेब का ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक था। अब शिवाजी ने मुगल साम्राज्य को चेतावनी देना उचित समझा। अतः सन् 1657 में जावली पर अधिकार कर लेने के बाद उन्होंने ग्रीष्म ऋतु में मुगलों द्वारा शासित जुन्नार तथा अहमदनगर पर धावा बोलकर उन्हें लूट लिया।
शिवाजी के गुप्तचरों ने सूचना दी कि बीजापुर के शासक द्वारा मूल्ला अहमद को आज्ञा दी गई कि वह कल्याण से एकत्रित समस्त धनराशि को बीजापुर पहुंचाए। इसके लिए सशस्त्र रक्षक दल का प्रबंध किया गया था। लेकिन शिवाजी ने इस कोष को लूटने के लिए योजना बनाकर दो दलों का गठन किया।
योजना सफल रहीं और कोष को लूटकर एक दल राजगढ़ दुर्ग गया तथा कल्याण पर भी अधिकार हो गया। दुसरे दल ने भिवन्डी पर अधिकार कर लिया।
इस विजय के बाद कल्याण उत्तर दक्षिण में स्थित किलो पर भी अधिकार कर लिया। चोल , तले , घासले , रामची , लोहगढ़ , कंगोरी , तुरंगतिकोन आदि सभी थोड़े ही समय में अधिकार मे आ गए। सन् 1657 के अक्टूबर तक पूरे कोंकण में शिवाजी का अधिकार हो गया।
कोंकण अधिकार में लेने के बाद समुद्रतट पर वसई से राजापुर तक एक त्रिभुजाकार क्षैत्र में शिवाजी का राज्य स्थापित हो गया।
मार्च 1659 को कुदाल से यूरोप की बनी हुई एक कृपाण खरीदी जिसे उन्होंने भवानी कृपाण का नाम दिया। उन्होंने नौसैनिक बेड़े का गठन किया इसके लिए उन्होंने विजय दुर्ग नामक एक नाविक किले का निर्माण करवाया। सन् 1660 में एक नौसैनिक किला स्वर्ण दुर्ग बनाया गया।
सन् 1664 में तीसरा नौसैनिक किला सिन्धु दुर्ग पर बनाया गया। सन् 1680 में एक बहुत बड़ा नौसैनिक अड्डा कोलाबा में बनाया।
शिवाजी ने पन्हाला , खेलना , रंगना , वसंतगढ आदि छोटे छोटे दुर्गों पर अधिकार कर लिया। खेलना का नया नाम विशालगढ़ रखा गया ।
उज्ज्वल चरित्र
छत्रपति शिवाजी महाराज के उज्जवल चरित्र के विषय में कल्याण की एक घटना प्रसिद्ध है। जब आबाजी सोनदेव कल्याण के राज्यपाल बनाए गए तो वहां के पूर्व राज्यपाल की अप्रतिम सुन्दर पुत्रवधु को उपहार स्वरूप शिवाजी के पास पूना भेज दिया। उस स्त्री का पूर्ण सम्मान करते हुए शिवाजी ने कहा – ” आह कितना अच्छा होता यदि मेरी मां भी आप के समान सुन्दर होती ।” और उससे क्षमा मागते हुए पूरे सम्मान के साथ उसके घर भेज दिया।
आबाजी एवं समस्त अधिनस्थ कर्मचारियों को चेतावनी दी गई कि वे भविष्य में ऐसी गलती कभी न करें तथा प्रत्येक पर स्त्री को मां के समान आदर दे।
धोखेबाज अफजल खां को बाघनखे से चीर डाला
4नवम्बर , 1656 को बीजापुर के सुल्तान मुहम्मद आदिलशाह की मृत्यु हो जानें से बीजापुर राज्य लगभग छिन्न भिन्न हो गया। सुल्तान की बड़ी बेगम अपने अल्पव्यसक पुत्र के नाम पर शासन का संचालन कर रही थी। मराठा प्रदेश पर शिवाजी ने अधिकार कर लिया था।
शिवाजी ने बीजापुर पर आक्रमण तेज कर दिए। शिवाजी को रोकने के लिए बेगम ने अफजल खां को एक बड़ी सेना लेकर शिवाजी को जीवित या मृत बंदी बना लिए जाने के लिए भेजा। अफजल खां पूर्व सुल्तान का अवैद्य पुत्र था। वह कर्नाटक के कई युद्धों में भाग ले चूका था।
योजनानुसार प्रतापगढ़ किले के नीचे अफजल खां और शिवाजी का मिलना तय हुआ। वह शिवाजी को धोखे से मारना चाहता था। पूर्व निर्धारित शर्तो के अनुसार शिवाजी मिलने के स्थान पर कोई सेवक या स्वयं कोई शस्त्र नहीं रख सकते थे।
शिवाजी ने अफजल खां से मिलने से पूर्ण कुलदेवी भवानी की पुजा की । उन्होंने ऊपर पहने वस्त्र के अंदर कवच, सिर में पगड़ी के नीचे लोहे का टोप, हाथों में बाघनखे पहने जो सामान्यतया दिखाई नहीं पड़ते थे। एक बाह में छोटी सी कटार छिपा ली गई एवम् मां भवानी को साष्टांग प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लेकर चल पड़े।
अफजल खां निर्धारित स्थान पर पहले से पहुंच गया था। अफजल खां अपने स्थान से उठा, उसने शिवाजी को अपने सीने से लगा दिया एवम् बाए हाथ से शिवाजी की गर्दन दबोच ली तथा दाहिने हाथ से जैसे ही तलवार निकालने लगा, लगा शिवाजी ने बड़ी सूझबूझ से काम लिया । अपने बाघनखे से उसका पेट फाड़ डाला और आंते निकाल दी । इसके बाद अफजल खां के अंगरक्षक सामना करने को आए लेकिन उन्हें भी मार दिया।
इसके बाद शिवाजी ओरंगजेब ने शाइस्ता खां के नेतृत्व में सेना भेजी जिसका शिवाजी ने सामना किया एवम् विजय प्राप्त की।
राजा जयसिंह से सामना
छत्रपति शिवाजी महाराज के बढ़ते प्रभाव को देखकर औरंगजेब ने राजा जयसिंह को भेजा । सूरत पर हुई लूट से औरंगजेब और भी क्रोधित हो गया। दिलेर खां और राजा जयसिंह औरंगजेब के योग्यतम और विश्वास पात्र व्यक्ति थे।
जयसिंह को मुगल दरबार में शाहजादो के समान सम्मान प्राप्त था। 30 सितंबर , ,1664 को अपने जन्मदिन के अवसर पर औरंगजेब ने जयसिंह को विशेष पोशाक से सम्मानित कर शिवाजी के विरुद्ध भेजर। जयसिंह ने विशाल सेना के साथ दक्षिण को प्रस्थान किया।
शिवाजी ने भी संकट की स्थिति को देखकर पुरन्दर में संधि की। शिवाजी जयसिंह के साथ हुई संधि का पालन करने के लिए औरंगजेब के पास जानें की तैयारी करने लगे।
छत्रपति शिवाजी महाराज को अभी तक औरंगजेब पर पूरा विश्वास नहीं था। शिवाजी ने मुगल दरबार में स्वयं की जगह अपने पुत्र को भेजा। लेकिन संधि की शर्तो के अनुसार एक बार शिवाजी को भी औरंगजेब से मिलना था। जयसिंह ने उन्हें वचन दिया कि मुगल राजधानी में वह स्वयं (जयसिंह) तथा उनका ज्येष्ठ पुत्र दोनों उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व लेंगे। इसके लिए उन्होंने शिवाजी को लिखित प्रतिज्ञा भी दी।
जब शिवाजी मुगल दरबार में गए तो उनका उचित सम्मान न हुआ । इससे शिवाजी दरबार से चले आएं लेकिन बाद में शिवाजी को आगरा में बंदी बना लिया गया ।
इसके बाद शिवाजी अपनी नीति के तहत मुक्त हो गए और संन्यासी के वेश में पच्चीस दिन बाद 13 सितंबर , 16660 को अपनी राजधानी राजगढ़ पहुंचे। वे अपनी मां जीजाबाई से मिले। स्वतंत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। उनके आने के उपलक्ष्य में उनके सभी किलो से तोप ध्वनियों से इसकी सूचना दी गई। समस्त राज्य में उत्सव जैसा माहौल था।
प्रबल शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के सारे साधन भी शिवाजी को बंदी बनाने में सफल नहीं हो सके। सन् 1670 के प्रारंभ में शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध पुनः खुले रूप में युद्धों का शंखनाद कर दिया।
औरंगजेब का फरमान
औरंगजेब ने 9 अप्रैल , 1669 को एक आदेश निकाला – ” हिन्दुओं के समस्त विद्यालय तथा मन्दिर गिरा दिए जाए और उनकी धार्मिक शिक्षा तथा प्रथाओं का दमन किया जाए।” इसके लिए औरंगजेब ने एक विभाग भी बनाया जो कि हिन्दुओं के मंदिरों , विद्यालयों को भूमिसात करने , उन पर जजिया कर लगाना , उन्हें राजकीय सेवाओं से पृथक करना और उनके त्यौहार आदि पर रोक लगाना आदि घृणित कार्य करे।
सर्वप्रथम 4 दिसम्बर , 1669 को उसकी आज्ञा से इतिहास प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़ डाला। मथुरा के केशवराज मन्दिर के साथ भी यही हुआ। मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद कर दिया। उज्जैन तथा अहमदाबाद में भी ऐसा ही किया। आमेर के मन्दिर 1680 में नष्ट कर दिए।
जब वह प्रथम बार दक्षिण भारत का राज्यपाल था तो 1644 में उसने अहमदाबाद के प्रसिद्ध चिन्तामणि मन्दिर में गाय मारकर उसे मस्जिद में परिवर्तित कर दीया था।
अतः हिंदू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी महाराज इस अन्याय के विरोध में मुगलों टक्कर लेने के लिए तैयार थे। इसी कड़ी में शिवाजी ने औरंगजेब के अधीन बरार को लूटकर इसकी शुरुआत कर दी। 1200 राजपूत सैनिकों के बलिदान से महत्वपूर्ण सिंहगढ़ पर पुनः अधिकार कर लिया।
इसके बाद पुरुन्दर , माहुली , जुन्नार , परेंडा , अहमदनगर आदि पर भी शिवाजी का अधिकार हो गया।
सन् 1670 में औरंगजेब की सेना को सूरत में दूसरी बार लुटा। 5 जनवरी , 1671 को शिवाजी ने सल्हेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। पूना और नासिक के जिले बिना किसी अन्य संघर्ष के ही शिवाजी के अधिकार में आ गए।
सालहेर पराजय का समाचार सुनकर तीन दिन तक औरंगजेब दरबार में भी नहीं आया। और कहा – ” लगता है अल्लाह मुसलमानों से उनका राज्य छीनकर एक काफिर को देना चाहता है यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया।
सूरत से मुंबई की ओर धरमपुर और जोहार नाम के दो छोटे छोटे राज्य भी जून 1672 में शिवाजी के अधिकार में आ गए।
छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक महोत्सव
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी (6 जून , 1674 ) को विधि विधान से एक स्वतंत्र राजा के रुप में अभिषेक संस्कार सम्पन्न हुआ । सभी प्रशासकीय पदो का संस्कृत में नामकरण किया। शिवाजी ने अपने राज्याभिषेक से एक नवीन संवत् राजशक का प्रचलन आरम्भ किया।
इस भव्य राज्याभिषेक महोत्सव के बाद 17 जून 1674 को माता जीजाबाई का देहान्त हो गया। इसके बाद पुनः शुभ मुहूर्त में 24 सितम्बर 1674 को पुनः एक लघु अभिषेक सम्पन्न कराया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों से जागीरदार , सामंत तथा जनता सभी ने उनके शासन को हृदय से स्वीकार किया।
छत्रपति शिवाजी महाराज का महाप्रयाण
इन दिनों शिवाजी महाराज अस्वस्थ्य चल रहे थे। उन्हें 23 मार्च को ज्वर आया और 3 अप्रैल 1680 को एक हिंदू सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज का महाप्रयाण हुआ । मराठा राज्य ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दू शोक में डूब गया ।
आपके अमूल्य सुझाव , क्रिया – प्रतिक्रिया स्वागतेय है |