कन्नोज महाराजा जयचंद गद्दार नहीं , देशभक्त थे

महाराजा जयचंद का नाम आज भारत के इतिहास में भारतीय वामपंथी इतिहासकारो द्वारा राष्ट्रद्रोही शब्द का पर्यायवाची बनाया गया। इनके अनुसार मूहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए महाराजा जयचंद ने आमंत्रित किया था। मूहम्मद गौरी को आमंत्रित करने का मिथक कैसे लोकप्रिय हुआ ? तराईन की लड़ाई के लगभग 400 साल बाद, आइन-ए-अकबरी ने महाराजा जयचंद द्वारा पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ गौरी का साथ देने की झूठी कहानी फैलाई। और जिस गहरवार राजवंश के सम्मान में सलामी दी जानी चाहिए थी, उस राजवंश को राजनीतिक षड्यंत्रों के द्वारा कलंकित किया गया।

महाराजा जयचंद का इतिहास

महाराजा जयचंद के शासनकाल के ऐतिहासिक अभिलेख उन्हें अपने समय के सबसे बहादुर, परोपकारी और धार्मिक शासक के रूप में दर्शाते हैं, जिसमें पुरोहितो को भूमि दान से भरे शिलालेख हैं। कहा जाता है कि आक्रमणों के खिलाफ अपने राज्य की रक्षा के लिए उनके पास एक बड़ी सेना थी, जिसका समर्थन फ़ारसी और भारतीय दोनों ग्रंथों से होता है। वास्तव में तो महाराजा जयचंद के दरबार में संस्कृत साहित्य के पाँच पारंपरिक महाकाव्यों में से एक नैषधीय चरित की रचना की गई थी (नियोगी, आर., 1959, गहड़वाल राजवंश का इतिहास)।

महाराजा जयचंद के पूर्वजो से लेकर राजा जयचंद्र तक सभी गहरवार राजा अपनी मातृभूमि पर मर मिटते थे, शायद इसी बात का दंड विदेशी बुद्धि के इतिहासकारो ने उन्हें दिया । ईस्वी सन १०८५ से ११०० ईस्वी तक गहरवार वंश की गद्दी पर जयचंद्र के पूर्वज महाराज चंद्रदेव विराजमान थे । डॉ अवध बिहारी अवस्थी कृत राजपूत राजवंश पुस्तक के अनुसार चंद्रदेव गहरवार ने मुसलमानो के विरुद्ध घोर युद्ध किया था, तथा काशी कंन्नोज को मुसलमानो से बचाया । चंद्रदेव के पुत्र मदनचन्द्र को भी मुस्लिम शासकों से युद्ध करना पड़ा, एक वर्ष तक मदनचन्द्र रणभूमि में ही रहें ।

इस वंश के सबसे प्रतापी राजा गोविंदचंद्र हुए थे। सन् 1110-1144 तक इनका कार्यकाल रहा। युवराज पद पर होते हुए ही गोविंदचंद्र गहरवारों को बड़े युद्ध जीतवा चुके थे। उन्होंने पालो और तुर्को को बड़ी करारी शिकस्त दी। गोविंदचंद्र गहरवार ने गजनी तक को जीता था। गोविन्दचन्द्र के बाद उनका पुत्र विजयचन्द्र गद्दी पर बैठा, उन्हें भी तुर्को से युद्ध करना पड़ा, तुर्क नेता हमीर खान को उन्होंने पराजित किया था ।

विजयचन्द्र के पुत्र ही महाराज जयचंद्र थे , मूहम्मद गौरी से परास्त होने से पूर्व जयचंद ने यवनों को कई बार हराया था। फलस्वरूप जयचंद को निखिल यवन क्षयकर्ता ( यवनों का नाश करने वाला ) कहा गया है । रंभामंजरी जयचंद के लिए लिखता है : ” बारम्बार च् यवनेश्वरः पराजयी पलायते” इन यवन आक्रमणकारियों में स्वयं मूहम्मद गौरी भी था, जिसे महाराजा जयचंद ने बार बार हराया था।

अयोध्या में त्रेता का ठाकुरजी मंदिर के मलबे से , भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए काम करने वाले जर्मन इंडोलॉजिस्ट ए. फ्यूहरर ने एक शिलालेख खोजा, जिसमें कहा गया था कि जयचंद ने इस मंदिर का निर्माण किया था। विष्णु हरि शिलालेख (जो राम जन्म भूमि स्थल पर पाया गया था) के अनुसार, अयोध्या का प्रसिद्ध राम मंदिर गोविंदचंद्र (जयचंद के दादा) के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। ताज-उल-मआसिर के अनुसार, महाराजा जयचंद के बाद, तुर्की सेना ने अकेले बनारस में “लगभग एक हजार मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और उनकी नींव पर मस्जिदों का निर्माण किया”। हालांकि अतिरंजित, विनाश के ये दावे दर्शाते हैं कि गहरवारों ने अपने राज्य में बड़ी संख्या में मंदिरों का निर्माण किया था (जैन, एम., 2017, द बैटल फॉर राम)

गहरवार राजवंश (जिससे जयचंद संबंधित थे) का मुस्लिम आक्रमणकारियों से लड़ने का एक लंबा इतिहास रहा है, और वे इन आक्रमणों के खिलाफ अपने क्षेत्र की रक्षा करने में सफल रहे। इसके अलावा, गहरवार शिलालेखों से पता चलता है कि उनके शासन में तुरुष्कदंड के रूप में जाना जाने वाला कर एकत्र किया गया था ताकि वे तुरुश्कों (मुसलमानों) के खिलाफ लड़े गए युद्धों को वित्तपोषित कर सकें। जयचंद ने अपने पूर्वजों से प्राप्त तुरुश्क-लड़ाई की परंपरा को आगे बढ़ाया। नयचंद्र सूरी की रंभामंजरी (1400 ई. में लिखी गई) के अनुसार, जयचंद ने यवनों (मुसलमानों) को हराया। यह स्थिति विद्यापति की पुरुष-परीक्षा (चौधरी जीसी, 1954, उत्तरी भारत का राजनीतिक इतिहास) द्वारा पूरी तरह से समर्थित है।

गद्दार नहीं , इस्लाम के दुश्मन थे राष्ट्रभक्त महाराजा जयचंद

Image – क्षत्रिय संस्कृति

आइन-ए-अकबरी के बाद, इस कथा को कई साहित्य में फिर से लिखा गया। इस प्रकार, इसे बिना किसी ऐतिहासिक आधार के मुख्यधारा में धकेल दिया गया। इस तरह की मनगढ़ंत कहानी शायद क्षत्रियों के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक साधन थी जिसका उद्देश्य मौजूदा सत्ता को वैधता प्रदान करना था। 16वीं सदी के इस मुस्लिम साहित्य ने 12वीं सदी के भारतीय राजा के बारे में अफवाहों के आधार पर इस कहानी को मुख्यधारा में प्रसारित करने के लिए मुस्लिम आक्रमण का दोष बिना किसी आधार के हिंदू राजा जयचंद पर लगाया गया।

तराईन का युद्ध

सर्वप्रथम तो तराईन का युद्ध मूहम्मद गौरी और महाराज जयचंद के बीच प्रथम युद्ध नही था, मूहम्मद गौरी का पृथ्वीराज चौहान पर यह तीसरा आक्रमण था, इससे पहले भी दो आक्रमण हुए थे, मूहम्मद गौरी ने केवल चौहान राज्य पर ही आक्रमण नही किया, बल्कि गुजरात और सिंध के क्षेत्रों में सोलंकी, चालुक्य आदि से भी युद्ध किया। मूहम्मद गौरी अपने जिहाद अभियान पर था, मूहम्मद बिन कासिम, मूहम्मद ग़ज़नवी , सालार मसूद जैसे अन्य विदेशी आक्रांताओं की तरह वह बिन बुलाया आक्रमणकारी ही था। इस बात की पुष्टि तब भी हो जाती है, जब चौहानों के बाद अगला आक्रमण गहरवारों पर किया।

मूहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान से पहले दो युद्धो में हार चुका था । उसके अंदर अपमान की ज्वाला भभक रही थी, उसका आक्रमण तो होना ही था, जयचंद द्वारा बुलाने की क्या आवश्यकता थी ? जब गौरी पहली बार मे ही क्षमादान पाकर दूसरी बार आक्रमण कर सकता था, तो दूसरी बार क्षमा पाकर वह तीसरी बार आक्रमण भला क्यो नही करता ? दूसरे युद्ध मे मूहम्मद गौरी की बड़ी करारी हार हुई थी, वह पृथ्वीराज की सेना के हाथों मरते मरते बचा था । इसी अपमान का बदला गौरी को लेना था।

ताज-उल-मासिर, कामिल-उत-तवारीख और तबकात-ए-नासिरी के अनुसार

इसके अलावा, ताज-उल-मासिर, कामिल-उत-तवारीख और तबकात-ए-नासिरी जैसे सभी समकालीन फ़ारसी इतिहासों में जयचंद को एक हिंदू शासक के रूप में दर्शाया गया है, जिसने चंदावर में गौरी सेना से युद्ध किया था। इन ग्रंथों में जयचंद के लिए अत्यधिक तिरस्कार इस तथ्य को रेखांकित करता है कि मुसलमान उससे घृणा करते थे और उसे इस्लाम के दुश्मन के रूप में देखते थे (इलियट और डाउसन, 1869, द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एज़ टोल्ड बाय इट्स ओन हिस्टोरियंस)। इस प्रकार, हम समकालीन साक्ष्यों से यह स्थापित कर सकते हैं कि जयचंद ने कभी भी गौरी को चौहानों पर हमला करने के लिए राजी या आमंत्रित नहीं किया; वास्तव में, वह अपने देश की रक्षा के लिए गौरी से लड़ते हुए युद्ध के मैदान में मारा गया। इसके अलावा, हम्मीरा महाकाव्य (लगभग 1400 ई. में लिखा गया) में पृथ्वीराज और मुहम्मद गौरी से निपटने वाले पूरे खंड में जयचंद का नाम भी शामिल नहीं है (किर्तने, एनजे, 1879, हम्मीरा महाकाव्य नयचंद्रसूरी का)।

समकालीन हिन्दू और मुस्लिम ऐतिहासिक सहित्य

समकालीन हिन्दू और मुस्लिम किसी भी ऐतिहासिक सहित्य में जयचंद पर यह आरोप नही लगा है की उन्होंने मूहम्मद गौरी को आमंत्रित किया , गौरी को बुलावे की बात बहुत ज़्यादा गंभीर बात है, अगर इस बात में तनिक भी सत्यता होती, तो समकालीन ऐतिहासिक पुस्तको में इस बात का वर्णन होता । इतिहासकारो ने इस बात का कहीं वर्णन नही किया है की मूहम्मद गौरी को जयचंद ने आमंत्रित किया था, हां यह जरूर लिखा है की राजसूय यज्ञ में बाधा डालने के बाद जयचंद और पृथ्वीराज के बीच वैमनस्य बढ़ गया था ।

प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तक पृथ्वीराज विजय

चौहानों की सबसे प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तक पृथ्वीराज विजय में तो जयचंद और पृथ्वीराज चौहान के विवादों का कोई वर्णन तक नही है, उसके बाद किस आधार पर जयचंद को ग़द्दार कहा जा सकता है ? जब न चौहानों ने, ओर न ही मुसलमानो ने जयचंद पर ऐसी कोई टिप्पणी नही की ?

तारीख-ए-फरिश्ता

बहुत से विद्धवान मुस्लिम इतिहासकारो ने भी जयचंद द्वारा गौरी को निमंत्रण की बात को निराधार लिखा है । भारत मे मुस्लिम सत्ता कैसे स्थापित हुई, इसका सबसे अच्छा वर्णन फारसी साहित्यों में मिलता है, जैसे फरिश्ता की तारीख-ए-फरिश्ता आदि ..इन पुस्तकों में मूहम्मद गौरी की जीत का वर्णन तो काफी बढ़ा चढ़ाकर है, लेकिन इस बात का कहीं वर्णन नही है, की जयचंद ने मूहम्मद गौरी को आमंत्रित किया ।

डॉ मजूमदार के अनुसार

जयचंद ने संयोगिता का स्वयंवर नही किया था, बल्कि राजसूय यज्ञ किया था, उसी यज्ञ का विध्वंस पृथ्वीराज चौहान ने किया, ओर दोनो के मध्य स्थायी शत्रुता के बीज पड़ गए । लेकिन इतनी बड़ी घटना के बाद भी जयचंद के मुख्य शत्रु पृथ्वीराज चौहान नही थे, बल्कि सिंध सीमा से आक्रमण कर रहे मल्लेछ थे । जयचंद ने बार बार अपनी सेना सिंध भेजी थी, जयचंद ने मुसलमानो से निपटने के लिए राजस्थान को भी अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया, लेकिन चौहानों के कड़े जवाब के कारण सफल नही हो सकें । लेकिन इस राजनीतिक घटनाक्रम में गहरवारों और चौहानों की शत्रुता विश्वविख्यात हो गयी। दोनो एक दूसरे से मदद नही मांगते थे, ओर यह बात गौरी भी अच्छे से जान चुका था।

पृथ्वीराज रासो के अनुसार

पृथ्वीराज रासो (जो जयचंद और पृथ्वीराज के बीच संघर्ष का वर्णन करता है) का सबसे पुराना संस्करण भी कभी भी जयचंद पर यवनों को बुलाने का आरोप नहीं लगाता (गुप्ता एम., 1963, पृथ्वीराज रासौ, पृष्ठ 147)। वास्तव में, इतिहासकार रोमा नियोगी ने निष्कर्ष निकाला है कि “इन दोनों राजाओं के बीच संघर्ष का कोई विश्वसनीय सबूत नहीं है, लेकिन यह काफी संभावना है कि वे मैत्रीपूर्ण शर्तों पर नहीं थे… (और) कौटिल्य के शासन के अनुसार यह दुश्मनी पूरी तरह से स्वाभाविक थी।” इस प्रकार, यदि दुश्मनी को देशद्रोह के बराबर माना जाता है, तो जयचंद के क्षेत्र के आसपास के राज्य, जैसे कि सेना, भी देशद्रोही हैं क्योंकि उन्होंने चंदावर की लड़ाई में घुरिडों के खिलाफ जयचंद की कभी मदद नहीं की। इस तर्क से, केवल जयचंद ही नहीं, भारत के सभी राजा दोषी हैं।

पृथ्वीराज चौहान के साथ क्यो नहीं हुए जयचंद !

इसका अकाट्य समुचित कारण था यह प्रमाणित है कि जयचन्द्र ने पृथ्वीराज की सहायता के लिए अपनी सेना नहीं भेजी । किन्तु यह इस बात को साबित नहीं करता कि महाराजा जयचंद ने मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया । दोनों बातें एक दूसरे से भिन्न हैं । यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ अन्य शासक भी गोरी के दूसरे आक्रमण के अवसर पर से लड़ने के लिए नहीं आए । तो क्या वह भी गद्दार हो गए ?

उनमें से कुछ वे भी थे कि जिन्होंने गोरी के शत्रु प्रथम आक्रमण पर पृथ्वीराज का साथ दिया था । जहाँ तक महाराजा जयचंद की बात है उन्होंने न तो प्रथम आक्रमण पर और न दूसरे पर हो अपनी सेना के साथ पृथ्वी राज की मदद की ।

महाराजा जयचंद का सेना लेकर न स्वयं जाना और न ही अपने सेनानायक के साथ सेना भेजना एक राजनीतिक सिद्धान्त पर आधारित था और जो सिद्धान्त आज भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में लागू है । वह सिद्धान्त यह है कि कोई स्वतंत्र शासक दूसरे स्वतंत्र शासक के राज्य में उसी की मदद के लिए अपनी सेना तब तक न भेजता था जब तक कि दूसरा शासक इसके लिए निवेदन न करे । प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत यह निवेदन रण – निमंत्रण के रूप में किया जाता था । न तो पहिले आक्रमण के अवसर पर , और न दूसरे पर ।

पृथ्वीराज ने जयचन्द को रण – निमंत्रण भेजा और इसी कारण महाराजा जयचंद ने अपनी फौज पृथ्वीराज की मदद के लिए नहीं भेजी । यदि यह कहा जाए कि चूंकि देश पर संकट आने को था इसलिए निमंत्रण न मिलने पर भी जयचन्द्र को पृथ्वीराज की सहायता करना चाहिए था तो इसका भी समुचित उत्तर है । वह यह कि क्योंकि दोनों में आपसी रंजिश थी इसलिए यदि जयचन्द्र अपनी सेना अपने ही मन से भेजता तो पृथ्वीराज उसे कबूल न करते , इस आशंका से की जयचंद की सेना पृथ्वीराज पर ही चढ़ाई न कर दें ।

महाराजा जयचंद ने मूहम्मद गौरी को आमंत्रित किया, यह बात तभी स्वीकार की जा सकती थी, जब जयचंद गौरी को प्रचूर धन भेजते, या सैनिक सहायता देते । इसके बाद कुछ ही समय बाद गौरी-जयचंद युद्ध भी इस आमंत्रण वाले दावे की हवा निकाल देता है

निष्कर्ष

इस प्रकार, हम सुरक्षित रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि महाराजा जयचंद द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी पृथ्वीराज चौहान को नष्ट करने के लिए गौरी को आमंत्रित करने के दावे को सभी प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने खारिज कर दिया है इसलिए महान शासक महाराजा जयचंद को सम्मान मिलना चाहिए, न कि देशद्रोही कहकर उनका उपहास या अपमान किया जाना चाहिए। हमें विकृत इतिहास का शिकार होने के बजाय अपने गौरवशाली अतीत का सम्मान करना चाहिए ।

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