मालवांचल में विंध्याचल की उपत्यका में जोधपुर (मारवाड़) से आए राठोड़ो का एक छोटा सा साम्राज्य था जिसकी राजधानी अमझेरा नगर थी। इस राज्य की स्थापना सन् 1604 ई . में राव जगन्नाथ ने की थी। प्रकृति की गोद में बसा मां अम्बिका का स्थान अमझेरा अभूतपूर्व था।
यह भक्ति और शक्ति का अद्भुत मिलाप रहा है। इस साम्राज्य के संस्थापक राव जगन्नाथ से लेकर उनकी नौवी पीढी के अंतिम राजा बख्तावर सिंह जिन्होंने सन् 1857 ई. के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सैनिक विद्रोह कर अपने प्राण फांसी के फंदे पर न्यौछावर कर दिए थे।
राव जगन्नाथ जी की महारानी किसनावती कछवाहजी ने तो रणक्षैत्र में लड़ते हुए अपने पुत्रों एवम् बहुओं सहित जीवन की आहुति दी थीं।
मारवाड़ के राज्य सिंहासन से वंचित युवराज राम (राम सिंह) के तृतीय पुत्र केशवदास राठौड़ जो महाराणा उदयसिंह की पुत्री से उत्पन्न थे, ने नर्मदा के तट पर चोली महेश्वर को अपनी राजधानी बनाकर बावन परगनों का राज्य स्थापित किया था।
राव राम के द्वितीय पुत्र कल्याण सिंह के पुत्र जसवंत सिंह भी मालवा में आकर रहते थे। उन्हे बादशाह ने मोरीगढ़ (उत्तर दुर्ग – दक्षिण प्रांत) का दुर्गपाल नियुक्त किया था। मांडू के सुल्तान ने उन्हें ग्यारह गांवो की मंसब की जागीर भी दे रखी थी।
जसवंत सिंह की एक युद्ध में सुनेल राजपूतों के साथ लड़ते हुए सन् 1661 में मृत्यु हो गई थी। जसवंत सिंह के ज्येष्ठ पुत्र युवराज जगन्नाथ जिन्हें चोली महेश्वर के अधिपति केशवदास ने दत्तक लिया था। उन्हें अकबर ने उसकी पटना, उड़ीसा और बंगाल के युद्धों में वीरता से प्रसन्न होकर अमझेरा राज्य की जागीर सन् 1604 में प्रदान की थी।
राव जगन्नाथ का विवाह मिर्जा राजा जयसिंह आमेर की राजकुमारी किसनावती के साथ हुआ था। वीर प्रसूता मां किसनावती ने दो वीर पुत्र केसरीसिंह और सुजान सिंह को जन्म दिया था। राव जगन्नाथ खानजन्हा लोदी के विद्रोह को कुचलने की मुहिम में लड़ते हुए अत्यधिक घायल हो जानें से मई 19, सन् 1630 को वीरगति को प्राप्त हुए।
राव जगन्नाथ के वीरगति के बाद केसरी सिंह अमझेरा के राजसिंहासन पर बैठे। राव केसरीसिंह वीर और विद्वानों का आदर करते थे। उन दिनों उत्तरी भारत पर यदा कदा मरहठठो ने दक्षिण से आकर हमले प्रारम्भ कर दिए थे।
दक्षिण से हमले के लिए आने वाली सेनाओं के मार्ग में अमझेरा राज्य की सीमाएं सबसे पहले पड़ती थी और इस रियासत के स्वामी को अपने सीमित साधनों से उनका मुकाबला करना होता था। सन् 1678 में मराठों की सेना आगे बढ़कर मोरीगढ पहुंची। उससे अपने दुर्ग की रक्षा करना अनिवार्य था।
मां किसनावती ने अपने दोनो पुत्र केसरी सिंह और सुजान सिंह को मां का दूध की लाज रखने को कहा। महारानी किसनावती खड़ग उठाई और दोनो पुत्रों सहित युद्ध में कूद पड़ीं। तत्कालीन कवि जैसा संधु ने इस घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि –
अर्थात् राजपूत जिसका नमक खा लेता था उस पर विपत्ति आने पर उसकी सहायतार्थ अपने प्राणों की बाजी लगा देता था। मां किसनावती कछवाही जी कहती है कि ” हे मेरे पुत्रों (केसरीसिंह और सुजनसिंह) अपने सिर रहते मोरीगढ़ पर शत्रुओं को कब्जा मत दे देना। तुम मोरीगढ़ तब ही देना जब अपने प्राण शरीर में ना रहें। मां के ऐसे वचनों को सुनकर दोनों पुत्रों ने भयंकर युद्ध किया। जिसमें शत्रु सेना के दलों और हाथियों को ढहा दिया।
राठौड़ वीर सपूतों ने वैसा ही किया जैसा मां ने कहा कि मरने तक दुर्ग की रक्षा करते रहें और आखिर में दोनों पुत्रों सहित मां किसनावती भी तलवारों से प्रचंड वार करती हुई जूझ कर खेत रही ।
मां किसनावती अपने दोनों पुत्रों सहित युद्ध में अपने दोनों पुत्रों सहित वीरगति को प्राप्त हुई । राव केसरीसिंह की चारों रानियां हाड़ीजी , सुनेलजी बड़वास , झालीजी देलवाड़ा और शेखावत जी सन् 1678 में मोरीगढ़ में उनके पार्थिव शरीर के साथ सती होकर स्वर्गारोहण हुई।
दुर्ग की रक्षार्थ मां किसनावती कछवाही जी, उनके दोनों वीर पुत्रों सहित युद्ध में लड़ते हुए इतिहास में अमर हो गए। धन्य है ऐसी वीर माताएं और उनके पुत्र , जिनको सत सत नमन।
1 thought on “अमझेरा की वीरांगना महारानी किसनावती”