मेवाड़ (मेदपाट) अपने अंक में समेटे हुए है – एक गौरवशाली इतिहास, जिसका एक – एक पृष्ठ वीरता, शौर्य, त्याग, समर्पण, बलिदान और विजय की गाथा से अंकित है। जिसका एक – एक स्थान अपने मे अद्भुत स्मृतियां संजोए है। और जिसका एक – एक भवन, मन्दिर, प्रासाद, खंडहर, वन – प्रान्तर, गिरी – गहवर, पर्वत – घाटियां और माटी का एक – एक कण आज भी कीर्ति गाथा सुना रहा है। उसी मेवाड़ का कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) – अभेद्य दुर्ग , मेवाड़ के स्वाभिमान की याद दिला रहा है।
मेवाड़ का मुकुट कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) अभेद्य दुर्ग है। आज भी गर्व से सिर ऊंचा किए हुए मेवाड़ के स्वाभिमान की याद दिला रहा हैं। यह वह ऐतिहासिक स्थल है, जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया। यहीं वह शौर्य भूमि है, जिसने महाराणा उदय सिंह जी को आश्रय देकर मेवाड़ को पुन: संगठित कर शत्रुओं से लोहा लेने का सामर्थ्य उन्हें प्रदान किया।
यहीं वह कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) अजेय दुर्ग है, जहां युवराज पृथ्वीराज ने अपना पराक्रम दिखाया। कुंभलगढ़ दुर्ग की सबसे महत्वपूर्ण यह कि हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप की जन्मस्थली होने का गौरव भी इसी भूमि को प्राप्त है। कुंभलगढ़ दुर्ग में ही महाराणा प्रताप का प्रारम्भिक जीवन बीता। यहीं से ही प्रताप ने जनता से सीधा सम्पर्क स्थापित कर भावी जीवन का उद्देश्य निश्चित किया।
अबुल फजल के अनुसार – यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की तरफ देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।
कर्नल जेम्स टॉड ने चितौड़गढ़ के बाद इस दुर्ग को रखा है। सुदृढ़ प्राचीर, बुर्जों और कंगुरो के कारण इसकी तुलना एस्ट्रस्कन से की है।
कुंभलगढ़ दुर्ग का निर्माण –
इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने राजा सम्प्रति के दुर्ग के ध्वंसावशेषो पर 1448 ई . में प्रारम्भ करवाया था। एवम् 1458 ई . तक यह पूरा बन गया था। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 3568 फीट है।
कुंभलगढ़ दुर्ग उदयपुर (राजस्थान) से लगभग 100 किमी उत्तर में अरावली की पर्वतमाला के बीच एक ऊंची उपत्यका पर बना है।
इस दुर्ग की प्राचीर 36 मील लम्बी एवं 7 मीटर चौड़ी है। जिस पर पांच घुड़सवार एक साथ चल सकते हैं। इसलिए इसे भारत की महान दीवार के नाम से जाना जाता हैं।
कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) अजेय दुर्ग महाराणा कुम्भा की सामरिक एवं कृतित्व शक्ति की प्रतिभा का अद्वितीय प्रतीक हैं।
दुर्ग के निर्माण के उपलक्ष में कुम्भा ने नए सिक्कों का भी प्रचलन आरम्भ किया और उन पर अपना तथा दुर्ग का नाम अंकित करवाया।
प्राचीन पुस्तकों एवम् शिलालेखों में इस दुर्ग के कई नाम मिलते हैं जैसे – माहोर, कुम्भपुर, कुंभलमेरू, माछिंदरपुर आदि।
इस दुर्ग का निर्माण प्रमुख शिल्पी मंडन के द्वारा करवाया। इस दुर्ग की गिनती पूरे भारत में अभेद्य दुर्गों में होती है।
द्वार एवं प्रासाद –
इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए तीन प्रमुख द्वार हैं। केलवाड़ा से जाने पर लगभग 700 फीट की ऊंचाई पर एक प्रहरी द्वार आता है, जिसे ” आरेठ पोल “ कहते हैं। गढ़ का प्रमुख प्रवेश द्वार ” हनुमान पोल “ हैं। जहां महाराणा ने मांडल्यापुर से लाई गई हनुमान जी की मूर्ती की स्थापना की थी।
“कटार गढ़” – इस बाहरी दुर्ग में अन्तरंग दुर्ग स्थित हैं, जिसे कटार की भांति उर्ध्व स्थिति के कारण कटार गढ़ कहते हैं। इसके भीतर पहुंचने के लिए विजयपोल , रामपोल , भेरवपोल , नींबूपोल , चौगानपोल , पागड़ापोल एवं गणेशपोल हैं।
इस भीतरी दुर्ग का प्रथम प्रासाद झील का मालिया है, जो महाराणा उदयसिंह की झाली रानी के नाम से जाना गया है। यहां का सबसे ऊंचा स्थान महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित राज प्रासाद हैं, जो अपने आप में इस महान विभूति की सादगी का परिचायक हैं।
कुंभलगढ़ दुर्ग में शिव एवं विष्णु के मंदिरों के अतिरिक्त कई जैन मंदिर भी हैं। गढ़ के भीतरी भागों को इस प्रकार से बांधा गया है कि वे जलाशय बन जाए और उनके द्वारा सिंचाई की सुविधा हो सके।
यह किला एक अपवाद छोड़ कर कभी भी आक्रांताओ द्वारा जीता नहीं जा सका। मालवा का सुल्तान महमूद तथा गुजरात के सुल्तान ने यह किला जितने की कोशिश की, लेकिन उन्हें मात खाकर लौटना पड़ा।
महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक भी इसी किले में हुआ तथा प्रताप के लिए भी यह उपयोगी सिद्ध हुआ।
सामरिक दृष्टि से सुरक्षित स्थल –
कई पहाड़ियों और घाटियों को मिलाकर इस किले को ऐसा सुनियोजित किया गया कि जिससे उसकी सुरक्षा स्वाभाविक रूप से भी होती रहें। आस पास के ऊंचे स्थान, मन्दिर, और राजप्रासादो के लिए और ढलान के भागों को जलाशयों के लिए रखा गया है।
कुंभलगढ़ दुर्ग को यथासाध्य स्वावलंबी बनाने का प्रयत्न किया गया है। जिससे भीतर रहने वाले परिवार लम्बे समय तक चलने वाले घेरे में भी सुरक्षित रह सकें। महाराणा कुम्भा के समय से महाराणा राजसिंह तक के काल में हुए आक्रमणों के समय राज परिवार एवम् नागरिकों को यहां सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई थी।
इस सम्पूर्ण क्षैत्र को सुदृढ़ प्राचीरो, बुर्जो और द्वारों से इस प्रकार से बनाया गया कि जिससे शत्रु सेना का प्रवेश आसानी से न हो सके। किले के चारों ओर की प्राचीर इस युक्ति से बनाई गई कि जिन पर सीढ़ियां लगा कर बाहर से चढ़ना कठिन था।
यह परकोटा इतना चौड़ा है कि इस पर कई सैनिक और घुड़सवार एक साथ चल सकते है। बीच – बीच में बुर्जों के निर्माण से सैनिक संगठन और सुरक्षा का प्रबन्ध सुदृढ़ हो गया। आज भी बीहड़ों, जंगलों से घिरा हुआ या कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) अजेय दुर्ग है जो देश के सबसे दुर्गम दुर्गों में से एक है।
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